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अनेकान्त
कर्म बाधक नहीं होमे । और वह चिरकाल तक नवमउ अचुक शासनहि, पूजहिं सुरनर भव्य । चिदानन्दम्वभाव में मग्न हुमा समता रस का पान अक्किट्टिम किहिम पडिमा, तहउ बंदउ मच ॥ करता रहता है। कवि ने इस गणस्थानवर्ती जीवों की जिन मारग नवदेवता, मानै नहि जो लोइ । संख्या ८ लाख और अट्टाणवे हजार पांच से दो बतलाई काल अनंनइ परिभमइ, सुक्खु न पावइ मोह ॥ हैं। । इस तरह यह जीव तीसरे शुक्ल ध्यान का ध्यान चौथी रचना श्रत जयमाला है, जिसमें प्राचाराङ्ग करता हुआ स्वामानन्द में लीन हुश्रा १४ वीं सीटी आदि द्वादश अंगों का परिचय दिया गया है । रचना रूप प्रयोग अवस्था को प्राप्त करता है, और वहां पंचदम्ब संस्कृत श्लोकों में निबद्ध हैं। अक्षरों के उच्चारण काल में चतुर्थ शुक्ल ध्यान द्वारा पांचवीं कृति मनोहरराय या नेमिचरित गम है जिसमें पचासी प्रकृतियों की मत्ता का विनाश कर म्वा मोपलब्धि कवि ने लगभग ११५ पद्यों में वसन्त ऋतु के वर्णन के को पा लेता है स्वात्मापलब्धि प्रात्मा की शुद्ध निरंजन दशा बहाने से जैनियों के २२ व तीर्थकर नेमिजिन का चरित्र है, भात्मा उस अवस्था को पाकर अनन्तकाल तक अपने अंकित किया है । वमन्त वर्गान में कवि ने पुगनी रूढीक चिदानन्द रस में निमग्न रहता है। यह वह अवस्था है जिस अनुसार अनेक वृक्षों फलों फलों के नाम गिनाये हैं। मधुमास के बाद अन्य कोई अवस्था नहीं होती, इसी से वह म्बात्म- में होने वाली वन की शोभा का सुन्दर वर्णन उपस्थित सुधारम का पान करता रहता है और अजर अमर हो जाता किया है । उस समय वन में अनेक प्रकार के फूल फूले हुए है। इस तरह से कवि की यह बेलि रचना सुन्दर कृति है। हैं, उनकी मधुर और भीनी-भीनी मुरभि से सारा ही बन
दूसरी रचना खटोला राम है, जिस में १२ पद्य हैं सुवासित हो रहा है। तरु लना, बेलें अपनी-अपनी मादकता जिनमें खटोलेका चित्रण करते हुए वस्तु तत्त्व का कथन से इठलाती हुई उन्माद प्रकट करती हैं। यह ऋतु कामी किया गया है । खटोले में चार पाय होत है दो वाही और जनों को काम वासना का प्रोत्तं जन देती है, राग-रंग में उन्हें दो सरुवे । उक्त खटोला रत्नत्रय रूप बाणों से बुना हुआ है। अनुरक्त करती है। कुछ फूले हुए वृक्षों के नाम कवि के उस पर शुद्धभाव रूपी सेज को संजम श्री ने बिछाया है। शब्दों में पढियेउस पर बैठा हुअा अात्मप्रभु परम आनन्द की नींद लेता बसंत ऋतु प्रभु श्राइयउ, फूली फली बनराइ । है, मुक्ति-कान्ता पंखा झलती है, और सुग्नर का समूह फूली करणी केतकी फूली वडल सिरि जाइ ॥ २६ सेवा कर रहा है । वहां आत्मप्रभु की अनन्त चतुष्टय रूप फुली पालिने वाली, फुली लाल गुलाल । स्वात्म-संवित्ति या सम्पदा का उपभोग करता है। यह भी राय वेलि फुली भली, जाकी वासु रमाल ॥२७ एक प्रात्म-संबोधक रूपक काव्य है। रचना साधारण होते फुलिड मरवा मोगरो, अरु फूले मचकुद । हुए भी भाव भीनी है।
फूली कणियर सेवती, फूले सरि अरविंद ॥ २८ तीसरी कृति 'झुबिकगीत' है । जिस में जिन शापन फूले कदंबक चंपकी, अरु फूली कचनार । के नवदवों का कथन किया गया है, यह एक अत्यंत छोटी जुही चमेली फूलसी, फूली वन कल्हार ॥२६॥ रचना है, उस के दो पद्यों का मनन कीजिये ।
इस वसन्तोत्सव को मनाने के लिये द्वारिका [वारावती] १ केवलि गुणठाण तेरहमैं रमें सबि मिलिय महंत जी। के सभी नर-नारीजन उल्लास से भर रहे थे, और टोलियों
आठौं लाख अठाणवें सहस्र पंचमै दो ए संत जी। टोलियों के रूप में वन की ओर जा रहे थे। सुन्दर गीतों की संतमारौ प्रायु पुरो तिहां रहि पाव भोगवै । ध्वनि से मानो मार्ग उस समय बोल ही रहा हो । जंगल के देसोनपूरव कोडि भव्यहं धर्म देशहि ते ठवें। पशु पक्षी भी कलरव कर रहे थे। राजकुल में बढी चहल तीजा मुकलह ध्याम ध्यावत केवल दृष्टि विंदए । पहल मची हुई थी। श्रीकृष्ण की सतभामा, रुकमणि और स्वात्म नै परमात्म विन्हें प्रत्यक्ष परमानन्दए । जामवन्ती प्रादि पाठों रानियाँ मुन्दर वस्त्राभूषणों से
गुणठाणवेलि
मज्जित हो और केसरकपुर मिश्रित वावन चंदन के