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ब्रह्म जीबंधर और उनकी रचनाएँ
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गया है। वे गणस्थान मोह और योग के निमित्त से होते मिथ्यान नाम गणहठाण वसहिं काबु अनंतए। हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व सापादन, मिथ्यात पंचहु निन्य पूरे भमहिं चिहुगति जंतुए। मिश्र, अविरत पम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त.
अन्तरंग में दर्शन मोहनीय कर्म का 'उपशम, क्षय या विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूचमसाम्पराय उप-क्षयोपशम से जो तत्त्वचि होती है वह उपशम सम्यग्दर्शन शान्तमाह, क्षीणमोह, पयोगकेवली और अयोगकेवली । है। जिस तरह जल में कीचड़ मिले हुए पानी में से कतक इनमें दूसरा और तीसरा गणम्थान गिरने की अपेक्षा हैं। फल (निर्मली) के निमित्त से जब कीचड़ नीचे बैठ जाती क्योकि मिथ्याव गगास्थान से प्रात्मा चौथे अविरत सम्यर- है, और पानी स्वच्छ हो जाता है । उसो तरह प्रात्मा में दृष्टि गुणस्थान में जाना है।
कर्ममल के उपशान्त होने पर प्रात्म-परिणाम स्वच्छ एवं __मिथ्यात्व गणस्थान में दर्शनमोह के उदय से जीव की निल हो जाते है । यह प्रारम निर्मलता से कषायकलुषता दृष्टि विपरीत होती है और स्वाद कटुक होता है, हम को दबाती हुई विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ाती रहती है, जिससे कारण उसे वस्तुतत्व रुचि कर नहीं होना । जिस तरह कर्म जन्म कटुक रप धीरे-धीरे शक्तिहीन एवं शिथिल पित्तज्वर वाले रोगी को दृध कड़वा प्रतीत होता है उसी होता जाता है । सम्यग्दृष्टि प्रातही विरोध भाव कम हो तरह मिथ्यादृष्टि को ही धर्मतत्व रुचिकर नहीं होता। जाते हैं । ष्टि में दूसरों की बुराई की भोर उदासीनता हो यह जीव उम में अनन्त काल तक रहता है मिथ्यान्व के जाती है श्रात्म-दोषों के प्रति ग्लानि हो जाती है, आत्मपांच भेद हैं । विपरीत, एकांत, विनय, मंशय, अज्ञान। निरीक्षण करते समय ज्ञानी को अपने दोष दूर करने की प्रेरणा इन पांचो के द्वारा जीव के परिणाम में अस्थिरता रहती मिलती है, और बह निन्दा तथा गहां द्वारा अपने दोपों है, उसे हित कर मार्ग नहीं सूझना, इसी कारण वह संसार को दूर करने की चेष्टा करता है। इस तरह वह अपने ज्ञान में यत्र-तत्र अनेक पर्यायों में भटकता रहता है । कवि ने चारित्र-विवेक श्रादि के द्वारा अपने को प्रागे बढ़ाने की इस गणस्थान का कथन करते हुए उसकी प्रवृत्ति का चष्टा करता है । और चतुर्थ मादी से पांचवीं में, और मंक्षिप्त परिचय दिया है। और उसके कथन का पांचवीं में एटवी तथा मानवीं में पाकर अपने परिणामों सम्बंध उक्त वैलि में भगवान प्रादिनाथ के कैलाशगिरि की संभाल द्वारा अपनी म्वाम-स्थिति का लाभ पर यमवसरण सभासहित पधारने पर भरत चक्रवर्ती ने कर लेना है । और स्थितिप्रज्ञ बनकर प्रारम-विरोधी उनकी पूजा करने के पश्चात् चौदह गुणस्थानों का स्वरूप शक्तयों की परवा न करता हुमा साम्यभाव की उज्ज्वलना पृछा था । इसी प्रसंग का उल्लेख कवि ने किया है। जैसा को बढ़ाना हुआ से शक्ति पुज का संचय कर लेता है, जो कि कवि के निम्न दो पद्यों से स्पष्ट है :
अंतमहत में मोहादि शत्रुओं को विनष्ट करता हुश्रा चैतन्य पंच परम गरु पाये नमा प्रणमवि गणहरविदजी । मय प्रशान रूपको पाकर जीवन्मुक्त हश्रा स्वपद में स्थित गण ठाणा गणगाविसु मनि धरि परमानन्द जी हो जाता है। मानुपीप्रकृति को दूर कर परमौदारिक दिव्य
आनंद कंद जिणिद भाखे भेद भावहु भन्न ए । देह का धारी हुश्रा, और निरंतर ही अपनी ज्ञानादि गणठाण वेलि विलास जुत्ता सुक्ख पावहो सवए। चतुष्टयरूप निजसम्पत्ति की संभाल करता हुश्रा, तथा कैलास भूधर आदि जिणवर एक दिनि समोसरचा। सर्वजीवों को कल्याण का परमधाम बताता हुअा, उम सुर असुर खेचर मुनिवर तिण धर्म वर्षा तिहिं करया(१) मयोगकेवली अवस्था में निरत रहना है, जहां प्रघाति
कर्मोदय जन्य शक्ति निर्जीव मी बनी रहती है । भरत नरेसर प्राविया भाविया सब परिवारे जी और जीवका कुछ भी अनिष्ट करने में समर्थ नहीं होती। रिसहेसर पाय वंदीए, पूजीए अपयारे जी जिस तरह रस्मी जब जाने पर निःशक्त हो जाती है परन्तु अटुपयारीय रचीय पूजा भरत राजा पृछए ।
उसकी ऐटन नहीं जाती, उसी तरह वे अयाति कर्म निःशक्त गुणटाण चौद विचार सारा भणहि जिणसुणि वच्छए। हो गये, इसीसे मोहके प्रभावमें केवली के शुधा तृषादिक