________________
१४०
अनेकान्त
तार्थ होता है कि यह क्रिया द्रव्य से भिन्न प्रदेश रूप नहीं है पड़ती है । इस के बिना इन्द्रिय ज्ञानी देख नहीं सकता। किन्तु स्वयं द्रव्य इस रूप होता है इसलिये ये द्रव्य की ही इसी प्रकार ये तीनों दध्य स्वयं नहीं चलने पर जब जीव पर्याय है।
पुद्गल स्वयं चलने टहरते, या स्थान लेते है तो सहाय रूप 'द्रव्य की देशान्तर प्राप्ति का कारण' हम विशेषण पड़ जाते हैं ऐसा स्वतः सिद्ध वस्तु स्वभाव है । स्वभाव में तर्क से जो हम ने ऊपर दो और तीन नम्बर की ज्ञान और राग नहीं हुअा करता । स्वभाव तो केवल अनुभव द्वारा जानने क्रियाएँ बतलाई हैं उन में भिन्न किया है। क्योंकि वे द्रव्य की चीज है। की देशान्तर प्राप्ति का कारण नहीं है।
प्रश्न-इस परिम्पन्दात्मक क्रिया का निरूपण श्रागम प्रश्न-यदि उपरोक्त द्रव्य निष्क्रिय हैं तो अपने अन्दर में कहां प्राया है जहां से श्राप के विवेचन की प्रमाणता का कोई क्रिया किये धर्म, जीव पुदगल के गमन में महायता निर्णय किवा जा सके , कैसे करेगा , अधर्म स्थिति में और आकाश अवगाह में उत्तर-१. श्री प्रवचन मार गाथा १२८ [ज्ञेयाधिकार] कैसे मदद करेगा क्योंकि अपने अन्दर कुछ क्रिया करेगा २. श्री पंचाम्तिकाय गाथा न. १८ [चूलिका] । तभी तो मदद करेगा जैसे घोड़। स्वयं चलंगा तभी तो ३. श्री गोम्मट्टमार जीवकाण्ड गा० न०५६१, ५१२ सवार को देशान्तर में जाने में मदद करेगा अन्यथा नहीं?
[सम्यक्त्व मार्गणा]। उत्तर-धर्म धर्म अाकाश का जो मदद करने का ४. श्री वसुनन्दि श्रावकाचार गा० न० ३२ स्वभाव है वह प्रेरक कारण रूप नहीं है जो उसे स्वयं चलने
५. श्री पंचाध्यायी दुसरा भाग श्लो०२४,२५,२६,२७, की आवश्यकता पड़े किन्तु उदासीनरूप बलाधार निमिन है ६. इस मुत्र की टीका श्री सर्वसिदि. राजवानिक जैसे बिलकुल ठहरा हुश्रा जल भी मच्छली के चलने में तथा श्लोकवार्तिक श्रादि से देखिये । पर व्यानुयोग का
और छाया पथिक के ठहरने में प्रत्यक्ष महाय पड़ती देखी वास्तविक ज्ञान होना परम आवश्यक है, क्योंकि आगम से जाती है । हमारी प्रांग्ख स्वयं कोई दंग्वने का कार्य नहीं प्रमाणता मिलने पर भी श्राप को अनुभव से प्रमाणता तो करती। जब प्रात्मा देखने का कार्य करना चाहे तो सहाय व्यानुयोग के बल से ही आयेगी ।
ब्रह्म जीवंधर और उनकी रचनाएँ
(परमानन्द जैन शास्त्री) ब्रह्मजीवंधर माथुर संध विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक ब्रह्मजीवंधर ने नं. १५६० में वैशाग्ववदी १३ सोमवार यशः कीर्ति के शिष्य थे । श्राप संस्कृत और हिन्दी भाषा के दिन भट्टारक विनयचन्द्र की वोपज्ञ चूनडी टीका की के सुयोग्य विद्वान थे। संस्कृत भाषा की चतुर्विशति तीर्थ- प्रतिलिपि अपने कानावरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। कर-जयमाला का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि वे इस से कवि १६ वी १७ वीं शताब्दी के विद्वान निश्चित संस्कृत में भी अच्छी कविता कर सकते थे। इन की हिन्दी होते हैं । रचनाएँ सभी महत्वपूर्ण और सम्बोधक भाव की भाषा की अनेक कृतियां देखने में पाती हैं, उस पर गज- स्प्रिट को लिये हुए हैं । कवि की रचनाओं का परिचय राती भाषा का प्रभाव अकित हशा जान पड़ता है। निम्न प्रकार है :रचनाओं में गणस्थानलि, खटोलाराम, भव'कगीत, गुणठाणालि -इस बेलि में प्रात्म-विकास के १४ श्रु तजयमाला, नेमिचरित, सतिगीत, तीन चौवीसी स्तति, स्थानों का सुदर परिचय कराया गया है। ये गणस्थान दर्शन स्तोत्र, ज्ञान-विराग विनती, बालोचना, वीसतीर्थकर
र अात्म-विकाम अवस्था के प्रतीक हैं। जिन्हें गणस्थान कहा
आ जयमाला और चौवास तीर्थकर जयमाला प्रसिद्ध हैं सभी १ ब्रह्म श्री जीबंधर तेनेदं चूनडि का टिप्पणं लिखितं रचनाएं सुन्दर और सरल हैं।
ग्राम पठनार्थ सं० १५१० वैसाख बुदि १३ सौमे