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मोक्षशास्त्र के पांचवे अध्याय के सूत्र ७ पर विचार
(३) तीसरी क्रिया केवल जीप में होती है। वह मोहनीयादि कर्म के उसे जीव का मिध्यात्र प्रवरति अवरति प्रमाद, कपाय रूप परिणमन है। यह विभाव क्रिया है सो जब तक उसका निमित्त कर्म रहता है तब तक तो ये होती है फिर निकल जाती है। इस को 'विभाव गुरग व्यंजन पर्याय' कहते हैं। जिस समय जीव में ये क्रिया होती है यद्यपि उस समय में हलन चलन रूप परिस्पन्दात्मक किया भी अवश्य होती है पर दोनों कियाएं भिन्न-भिन्न हैं। इन के गुण भिन्न भिन्न है, लक्षण भी भिन्न-भिन्न है और निमित्त भी भिन्न-भिन्न है। इसलिये यह राग रूप किया भिन्न हैं और परिस्पन्दात्मक किया भिन्न है उपरोक्त सूत्र का सम्बन्ध इस राग क्रिया से भी बिल्कुल नहीं है ।
(४) चौथी क्रिया- द्रव्य में एक ऐसी किया होती है जिस के द्वारा द्रव्य एक स्थान में दूसरे स्थान में जाना है । हिन्दी में इस को हलन चलन क्रिया कहते हैं और शास्त्र में इस प्रदेश परिस्पन्दाक है यह किया निमिन है गया रूप है। इसलिये प
धर्म, आकाश और काल में तो इस क्रिया को अवकाश ही नहीं । पुद्गल में यह काल सापेन होती है अतः उस में परमाणु तथा स्कन्ध दोनों अवस्थाओं में रह सकती है । जीव में द्रव्यकम नोकम सापेन हैं। इसलिये संसार वस्या में रहती है । सिट में नहीं । श्रात्मा में शरीर अनुसार जितने आकार बनते हैं वे सब इसी क्रिया के कारण है और पुद्गल की जितना स्कन्धात्मक रचना बनती तथा बिगडती है वह सब इसी क्रिया के कारण है। इस क्रिया को 'द्रव्य व्यंजन पर्याय' कहते है। उपरोक्त सूत्र का सम्बन्ध इस परिस्पन्दात्मक क्रिया से है सूत्रकारका शकि धर्म, अधर्म, श्राकाश जिन तीन द्रव्यों का अधिकार चला आ रहा है, वे तीन द्रव्य इस परिस्पन्दात्मक क्रिया से सदा रहित है ।
यद्यपि निर्विशेष रूप से प्रयुक्त किया गया किया एक सामान्य शब्द है जो सभी क्रियाओंों का घोतक है पर यहां उस क्रिया को कोई विशेषण न देकर भी वह केवल परिस्पन्दात्मक क्रिया का वाचक है। बात श्रागम बल से
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स्पष्ट है। इसलिये 'निष्क्रियारिग' से भाव निरपरिस्पन्द क्रियाणि' से है ।
उपरोक्त चार क्रियाओं में से आदि की तीन क्रियाओं के कारण इव्य में जो परिणमन या पयाय उत्पन्न होते है उन की 'भावात्मकपरिणाम' वा 'भावात्मक पर्याय' या कवल 'भाव' कहने और किया से जो परिणाम या पर्याय उत्पन्न होती है उन को 'परिस्पन्दात्मक परिणाम' या 'परिस्पन्दात्मक पर्याय' या केवल 'क्रिया' भी कहते हैं।
उपरोक्त तीन परिणाम गुणों से सम्बंधित है और चौथा परिणाम प्रदेशों से सम्बन्धित है यह भी कह सकते है क्योंकि ये क्रियाएं 'गुणपरिणामात्मक' है और यह क्रिया 'प्रदेश परिस्पन्दात्मक' है ।
उक्त तीनों गुणों का होने से 'गुण पर्यावरूप' है और चौथी क्रिया प्रदेशों का परिणमन होने से 'द्रव्य पर्याय रूप' है ऐसा भी कह सकते हैं ।
प्रश्न- इस क्रिया का ल क्या है ?
उत्तर- 'उभयनिमित्तापेक्ष पर्यायविशेष: द्रव्यस्य देशान्तर प्रप्तिहेतुः किवा ( गजवार्तिक)
अर्थ-स्व और पर अथवा अन्तरंग और बहिरंग कारण की अपेक्षा रखनेवाला पर्याय विशेष, द्रव्य की प्रदेशस्तर की प्राप्ति का 'क्रिया' है। किया विशेष्य है और तीन उस के विशेषण है 1
प्रश्न-तीन विशेषण देने का क्या कारण है ? उत्तर - उभय निमित्त सापेक्ष' देने का यह कारण है कि यह क्रिया गुरुलघु की क्रिया की तरह केवल स्वनिमित नहीं है किन्तु विभाव क्रिया होने के कारण उभय निर्मित है । वस्तु का निज परिणाम है महतो स्वनिमितक का अर्थ है और स्वभाव परिणाम नहीं किन्तु विभाव परिणाम है यह परनिमिन सापेक्षना है । स्वनिमित्तक क्रिया सदा रहती है । यह सदा नहीं रहती । यह इस विशेषण से स्पष्ट ज्ञात होता है।
'पर्यायविशेष' कहने से यह क्रिया स्वयं द्रश्य पा उस का त्रिकाली स्वभाव या गुण नहीं है किन्तु पर्याय है और पर्याय भी स्वभाव पयाय नहीं किन्तु विमात्र पर्याय है इस लिये पविशेष विशेषण दिया है। इससे यह भी फलि
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