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साहित्य समीक्षा
१. गतिसार-संग्रह- महावीराचार्य, सम्पादक, और अनुवादको लक्ष्मी एम. एस. मी. जबलपुर, प्रकाशक, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । पृष्ठसंख्या ३१२ सजिद मुख्य १२ रुपया
लौकिक गणित का यह प्राचीन ग्रन्थ है । जो राष्ट्रकूट राजा अमोध वर्ष के राज्यकाल में रचा गया है । ग्रन्थ ६ अधिकारों में विभाजित है, मंज्ञा अधिकार, परिकर्म व्यवहार कला पयवहार प्रकाशव्यवहार वैराशिक व्यवहार मिश्रक व्यवहार, क्षेत्रगणित व्यवहार और छाया व्यवहार । इनमें से प्रथम अधिकार में क्षेत्र, काल, धान्य, सुवर्ण, रजत और लोद आदि की परिभाषाओं का परिचय दिया है। दूसरे अधिकार में प्रत्युत्पन्न (गुशन भाग, वर्ग, वर्ग, ) घनमूल प्रादि का स्वरूप संकलित किया है । तीसरे में भिन्न भागाद्दार और भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल, वन घनमूल, तथा भिनात्मक श्रेणियों का संकलन, व्युनकलन और भागजाति का कथन करते हुए वैराशिक पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक तथा कय विक्रय और संक्रमण आदि का सुन्दर कथन किया गया है।
सम्पादक ने अपनी महत्वपूर्ण प्रस्तावना में गणित के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए गणित का सुन्दर विवेचन किया है। गणित का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले
के लिये ग्रंथ को प्रस्तावना यही उपयोगी है। प्रोफेसर लक्ष्मीचंद जी ने यूपी की प्रस्तावना मी सुंदर ली है। जैसे समाज को बड़ी आशाएँ हैं | सम्पादक ने विषय को स्पष्ट करने के लिये परिशिष्टों द्वारा उसे सरल बना दिया हैं। गणित जैसे कठिन
विषय को समझने के लिये सम्पादक ने बहुत परिश्रम किया 官 | अनुवाद भी अच्छा हुआ है ऐसे सुंदर संस्करण के
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राजमती संयमधरी समकित रयण सहाय । अच्युत स्वर्गहिं सुरभयौ नारी लिगु विहाय । इस तरह कवि की यह रचना सरस है 1
छडी रचना चतुर्विंशति जिनस्तवन है, जो संस्कृत के पद्यों में रचा गया है, और जिसे अनेकान्त में प्रकाशित किया जा चुका है ।
सातवीं रचना 'सतीगीत' है जिस में २७ पद्य है । आठवीं रचना २० तीर्थकर जयमाला है जो बड़ी सुन्दर
के प्रकाशन के लिये ग्रंथमाला संचालक और सम्पादक दोनों हो धन्यवाद के पात्र है :
स्वर्गीय ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचंद जी दोशी जी की जैन साहित्य के उदार की यह बलयती भावना और अधिक रूप में पल्लवित हो, यही भावना है।
२. कसायपाहुड भाग (जयपलाटीका, हिंदी अनुवाद महित) सूज गुणधराचार्य, टीकाकार वीरसेनाचार्य, सम्पादक पं० फूलचंद सिद्धांतशास्त्री और कैलाशचंद शास्त्री, काशी, प्रकाशक, भा० द० जैन संघ चीरासी मथुरा, पृष्ठ संख्या ५६२ मुल्य १२ रुपया ।
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प्रस्तुत ग्रंथ जयधवला का छटा बंधक अधिकार है. इसके बंध और क्रम दो भेद है जिम अनुयोगद्वार में कर्मणाओं का मियाल आदि के निमित्त से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेद से चार पार कर्मरूप परिणम कर श्रात्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रवादरूप यंध का कथन किया गया है वह बंध अधिकार है और जिसमें बंधरूप मिध्यात्व श्रादि कर्मो का प्रकृति स्थिति आदि चारभेद से अन्य कर्मरूप परिणमन का विधान किया हैं वह संक्रम अधिकार हैं । इन्ही दोनों के विषय का स्पष्ट विवेचन यहां किया गया है के निशा के लिये यह भाग बड़ी सुन्दर सामग्री अध्ययन करने के लिये प्रस्तुत करता है, जिससे यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि प्रकृत्यादि चार प्रकार के बन्ध में संक्रमण कैसे होता है। स्वाध्याय प्रेमियों को इन सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन कर अपने ज्ञान की वृद्धि अवश्य करनी चाहिये ।
संघ के व्यवस्थापकों का कर्तव्य है कि वे जयधवला
के अवशिष्ट भागों को भी यथाशीघ्र प्रकाशित करने का
प्रयत्न करें। ग्रन्थ का सम्पादन प्रकाशन अच्छा हुआ है ।
है। नौवीं रचना तीन चोवासी स्तुति है, जिसमें २८-१६ पद्य हैं। दशवीं रचना ज्ञान विराग विनती है । और ग्यारवी रचना मुक्तावतिरास । है, संभव है वह इन्हीं की कृति है या अन्य की विचारणीय है, पुस्तक सामने न होने से उसके सम्बन्ध में निश्चयतः कुछ नहीं कहा जा सकता । इनके अतिरिक्त कवि की और भी रचनाएं होंगी, जो ज्ञान भंडारों के गुच्छों में संगृहीत होंगी। जिन का अन्वेषण होना आवश्यक है। ***