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'तेरहवी-चादहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य
( डा० श्यामशंकर दीक्षित, एम० ए०, पी० एच० डी० )
संस्कृत महाकाव्य के उद्भव काल के सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया जा सकता । भारतीय परम्परा के अनुसार बाल्मीकि संस्कृत के प्रथम कवि और उनकी कृति 'रामायण' संस्कृत महाकाव्य की प्रथम रचना मानी जाती है, किन्तु इस के रचना-काल के सम्बन्ध में विद्वानों नहीं है। महाभारत का रचनाना-काल भी असंदिग्ध रूप से निश्चत नहीं किया जा सका है | परन्तु इतना सभी विद्वान स्वाकार करते हैं कि इन काव्यों की रचना सन ईस्वी से पूर्व हो चुकी थी और "सन् ईस्वी की प्रथम शताब्दी तक निश्चित रूप से संस्कृत की काव्य शैली निम्बर चुकी थी, काव्य-सम्बन्धी रूतियों बन चुकी थीं और कथानक में भी मोहक गुण और मादक प्रवृत्ति ले आने से सम्बन्धित काव्यगत अभिप्राय प्रतिष्ठित हो चुके ये वो कृत 'चरित' और 'मदन पाणिनि कृत 'जामवन्ती विजय' अब तक प्रकाश में आ गये थे, जिनमें उपर्युक्त सभी गुणों का समावेश था। जैन संस्कृत महाकाव्यों का उदय भी इसी समय से हुआ है और तब से लेकर अब तक जैन महाकाव्य की धारा अक्षर रूप से प्रवहमान रही। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक जैनों द्वारा प्राकृत को अधिक अपनाये जाने के कारण, इस समय तक जैन संस्कृत महाकाव्यों को गति बहुत मंथर रही है, किन्तु इस समय के बाद उन्होंने गति पकड़ी है ! जैन संस्कृत महाकाय माहित्यका विकास कलिकाल सर्वशसनकोप श्रीमोहनलाल दलीचन्द दमाई कृत 'जैन साहित्यमो
हेमचन्द्राचार्य से प्रारम्भ हुआ। ईसा की तेरवीं और चौदहवी शताब्दी में जैनों द्वारा जी विपुल और बहुमूल्य संस्कृत महाकाव्य - साहित्य रचा गया हैं, उसे निश्चय ही प्राचार्य हेमचन्द्र और उनकी कृतियों से प्रेरणा मिली है। आचार्य
सर्ग संख्या
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ने स्वयं त्रिपष्ठिशलाका पुरपचरित्र तथा 'कुमारपाल चरित' नामक महाकाव्य लिखे। कतिपय महाकाव्यों की रचना श्रश्रय दाताओ का प्रेरणा पर हुई है। इन आश्रय दाताओं में (गुजरात) के राम
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वस्तुपाल का नाम प्रमुख है। वस्तुपाल स्वयं भी एक श्रेष्ठ कवि था और उसने 'नरनारायणानन्द' नामक महाकाव्य की रचना की है ! कुछ कवियों ने पाण्डित्य काव्य-प्रतिभा और शास्त्र ज्ञान प्रदर्शित करने की भावना से प्रेरित होकर भारवि, माघ और श्रीहर्ष की श्रेणी में स्थान पान की महत्वाकांक्षा मे कृतिमा मिनोग किया है। ऐसे महान्यों में वादग्य' और 'पाण्डित्यं प्रदर्शन' ही प्रधान लक्ष्य रखे गये है, वे जन साधारण के लिए बोधगम्य नहीं। वे हृदय की अपेक्षा बुद्धि की उपज हैं और उसी को अधिक सन्तुष्ट भी करते है। किन्तु इन सबसे अधिक संख्या ऐसे महाकाव्यों की है जिनकी रचना स्वान्तः सुखाय हुई है । इनमें कवियों का मुख्य उद्देश्य अपने आराध्य तीर्थकरों के पावन जीवन का वर्णन करना रहा है । इनमें कहीं-कहीं उन कवियों का धर्म प्रचारक रूप भी सामने या गया है और कहीं-कहीं दार्शनिक पक्ष प्रबल हो गया है।
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जैन संस्कृत महाकाव्य - साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग अभी तक अप्रकाशित है। प्रोफेसर वरार-नि
महाकाव्य
१ वसन्तविलास
२ मल्लिनाथ चरित्र
३ नरनारायणानन्द
१. संस्कृत के महा की परम्परा प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आलोचना, जुलाई १९२२ ।
इतिहास, विविध इतिहास ग्रन्थ तथा श्रीश्ररचन्द नाहटा आदि विद्वानों के सहयोग से मुझे अभी तक इस युग के जिन जैन संस्कृत महाकाव्यों का पता लग सका हैं उनकी सूची इस प्रकार है
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रचनाकाल
ई० १३वीं शताब्दी
कवि बालचन्द्रसूरि विनय चन्द्रसूरि वस्तुपाल