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'तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य'
पालोच्य युग के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'धर्मशर्माभ्युदय' और कार्य में वह कितना सफल हना यह तो एक अलग निबन्ध 'नरनारायणानन्द' में यही प्रवृत्ति पाई जाती है । भारवि और का विषय है, किन्तु इतना तो मीकार करना ही होगा कि माघ की तरह इन महाकाव्यों के रचयिता भी कथाक्रम को भाषा पर उसका असाधारण अधिकार है किन्तु अनुप्रास छोड कर बीच में लगातार पांच छै. सर्गों तक चन्द्रोदय, के अत्यधिक प्राग्रह के कारण वह बहत विखट हो गई वन-विहार, जलक्रीड़ा, पानगोष्ठी तथा प्रकृतिका वर्णन करते है, जिससे उसका काव्य पण्डितों के उपयोग की वस्तु है चले गये हैं और बाद में विखलित कथा सूत्र को पकड़ जनसाधारण के उपयोग के लिए नहीं। कर आगे बढ़े हैं। 'भरनारायणानन्द' में तीसरे मर्ग के वान दूसरे भाग शाम्व-काव्य के अन्तर्गत ऐसे महाकाज्यों कथा सूत्र टूट जाता है और चौथे मर्ग मे नवे पर्ग तक की गणना है, जिनमें काव्य के साथ-साथ व्याकरण के ऋतुवर्णन, रैवतकवर्णन, चन्द्रोदय, मगगन-सुरतवर्णन, प्रयोगों का भी पूरा परिचय पाठकों को दिये जाने का उपक्रम सूर्योदय, वनक्रीडा, दोलान्दोलन और पुषगावचयन का रहता है । महाकाव्य का इस शैली की जनक भट्टि नामक वर्णन है । 'धर्मशर्माभ्युदय' में भी ग्यारहवें मर्ग से लेकर वयाकरण कवि को माना जाता है। उसने 'भट्टिकाव्य' की पन्द्रहवं मर्ग तक ऋतुवर्णन, वनक्रीडा, जलक्रीडा, चन्द्रोदय, रचना की थी। इस काव्य में रामकथा के वर्णन के साथ-साथ मद्यपान तथा पंभोग शृगार का वर्णन किया गया है। व्याकरण और अलंकार के प्रयोग भी बताये गए हैं। बारहवीं दोनों ही महाकाव्यों में कथानक गोंण है, अलङकृत वर्णन शताब्दी में प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'कुमारपाल चरित' की तथा चमत्कार की प्रमुखता है । पाण्डित्य प्रदर्शन के द्वारा रचना की इसमें कुमारपाल के जीवन चरित के साथ-साथ पाठकों को चमत्कृत करने के लिए दोनों ही महाकाव्यों का संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश का व्याकरण भी बताया गया परा एक-एक मर्ग चित्र-काव्यों से भरा है। एक-एक है। मालोच्य युग में जिनप्रभमूरिने 'याश्रय' या 'श्रेणिक उदाहरण देग्विण :
चरित' महाकाव्य की रचना की जिसमें महावीरस्वामी के कः कि कोककेकाकी किं काकः केकिकोऽककम् ।
समकालीन राजा _णिक के जीवन चरित्र के साथ-साथ कोकः कककक कैकः कः केकाकाकुककाट्टकम् ॥
संस्कृत व्याकरण के प्रयोगों को बताया गया है । एक -धर्मशर्माभ्युदय सर्ग १६ श्लोक ८२ उदाहरण दग्विएलोलानोलं लुलोलेली लाली लालल्ल लोललः ।
घोषवन्तोऽप्यघोषाः म्युम्नव प्रतिवादिनः । लोल लोल लुलरुलोलोल्लो लल्ली लाल लोलला॥
जिन्वतावादिनी बिभ्रत्युच्चतामनुनासिकम् ॥ नरनारायणानन्द मर्ग १४, श्लोक २३
यहाँ मगध देश के नागरिकों की विशेषतानों के वर्णन रीतिबद्धशैली का एक अन्य महाकाव्य दिल्ली के बाद के माथ-साथ व्यंजनों की घोष, अघोष और अनुनामिक शाह फीरोज शाह द्वारा प्रमानिन मुनिभद्रमूरि कृत 'शान्ति. मंजा होती है, यह बताया गया है ! नाथ चरित' है। इसमें भी अलकूत शैली द्वारा पागिडल्या ग्रालोच्य युग में जैन कवियों ने अनेक ऐतिहापिक प्रदर्शन करने की प्रवृनि परिलक्षित होती है । महाकाव्य की महाकाव्य लिखे हैं। ऐतिहासिक महाकाव्यों में कथानक प्रशस्ति में कवि ने बड़े गर्व से कहा है, कालिदास, भार्गव, इतिहास में लिया गया होता है और घटना क्रम भी इतिमाघ और श्रीहर्ष में जिन्हें दोष दिग्गई देते हैं। उन्हें हाप सम्मत होता है। शैली रीतिबद्ध ही होती है। कहने हममें गुण ही गुण दिखाई देंगे। संस्कृत के काव्य पञ्चक का प्राशय यह है कि उनमें वस्तु-व्यापार वर्णन, अलस्कृत मिथ्यात्व से अंचित है अतः साहित्याभ्यामियों के लिए उन शैली, प्रकृति-चित्रण, काव्य रूढियों का निर्वाह भादि सभी ग्रन्थों की जगह सम्यक्व-संवासना से युक्त यह महाकाव्य गुण होते हैं । कथानक में ऐतिहासिक जीवन वृत्त के साथपढाया जा सकता है।" कवि के इस कथन से स्पष्ट है कि साथ कभी-कभी काल्पनिक घटनाओं का उपयोग भी कवि उसके सामने संस्कृत के पंच महाकाव्यों के सभी गुणों से स्वतन्त्रता पूर्वक करता है । नयचन्द्र मूरिकृत 'हम्भीर महायुक्त एक जैन महाकाव्य बनाने की योजना रही थी। इस काव्य' इस युग का सर्वश्रंप ऐतिहामिक महाकाव्य है