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अनेकान्त
जगतराय के पदों में प्राराध्य का म्वरूपांकन अधिक ज्ञानादिक धन लूट लियो म्हारो नर्क न मोपै दया जी नहीं हुमा प्रत्युत् भक्त के अवगुण व अन्पता की व्यंजना अधिक हुई है । वे कहते हैं कि मैंने व्रत, तप, संयम, नीर्थ, 'जगत' उदधि ते पार करीजे मम दुःग्य संकट कौन जी दान कुछ भी तो नहीं किया और न ज्ञान, ध्यान धर्म व अधर्म को पहिचाना है। प्रतः मुझे तो तुम्हारी दया का है। 'जिन' के गुण तथा अपनी अल्पना व दुःग्य के कथन पाश्रय है
के उपरान्त जगतराम को उनके विरद का स्मरण होता है। बत तप संजम कछु बनत न मौर्षे हो सिथिल क्रिया
भक्त के अवगुणों का अवलोकन तथा उस पर विचार कठिनाई।
करना भगवान के लिए उचित नहीं हो सकता क्योंकि उन याते 'जगराय' प्रभु नाम ही जगत निति अब कडू
पर ध्यान देने से उत्पन्न ग्लानि उनके विरद-पतित-पावनता करिबो नेग बढ़ाई ॥
की पूर्ति में बाधक प्रमाणित होगी। यही सोच कर जगतराय जिनेन्द्र को उनके विरद का स्मरण कराते समय उसके सम्यक पालन के लिए उनके अवगुणों पर ध्यान न देने का
निवेदन भी कर देते हैंकुछ ज्ञान ध्यान में न जानू अरु धर्म अधर्म न
जिन जी न्यारोला जी हो ये...... ... .. ... ... ...। पहिचानू।
मेरी करनी परि मति जइयो अपनों विरद सम्हारोला जी हो। चंद जगतपति जग भानू मेरे मोह तिभिर को
अवता सरनो पकड़ यों तेरी जगतराय प्रति-पालालो जी ॥ हटा देना ॥
भक्त अपने उद्वार में श्राराध्य को दृढ़ता पूर्वक रुचि कभी दान हाथ से नाहि दिया कभी मुमरन मुग्व मे
लिवाने के लिए उनके द्वारा उपकृत भक्तों का स्मरण भी नाहिं किया।
उन्हें करा देते है । अजामिल, सेना, नरमी बाल्मीकि, कभी पग से मैं तीर्थ नाहिं गया मोहि धरम की रीति तीर्थ नाहि गया माहि धरम की रीति अहिल्या आदि के उद्वार की चर्चा वैष्णव भक्ति माहित्य
मिग्वा देना ॥ में सर्वत्र दृष्टि गांचर होती है। जैन भक्त भी इस क्षेत्र में यह विनती है मोरी जगतपति मब जीवन के रखवाले पती। किसी से भी पाछे नहीं रहे। जिनेन्द्र भक्ति से संठ धनञ्जय तुम दया धुरंधर धीर सती 'जग' दया की धूम मचा देना॥ के पुत्र का विष उतरा, मानतुग के बंधन तोडे, वादिराज
जैनधर्म में पुनर्जन्म तथा कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण का कोढ़ मिटाया, मागर से श्रीपाल को बचाया, भविष्यदत्त स्थान है । मनुष्य के दुःख सुख का दाता ईश्वर नहीं प्रत्युत् को घर पहुँचाया, रमिला की प्राशाएं पूरी की, सिंहोदर वे कर्म हैं जो उसके पूर्व जन्मों में किये हैं । यद्यपि शुभ और को संकट में वज्रकरण के मान को घटाया तथा कुमुदचन्द्र अशुभ रूप उभय कर्म ही मोक्ष प्राप्ति में बाधक है किन्तु के दर्शन दिये आदि कथाओं में विविध भक्तों के प्रति की अशुभ कर्म अपेक्षाकृत अधिक कष्ट दायक और परित्याज्य गई रक्षा एवं उपकार के स्मरण ने ही जगतराय को अर्हन्त है जिसकी विद्यमानता में शुभ कर्म व ज्ञान-प्राप्ति की प्रेरणा की शरण में आने का साहस प्रदान किया हैही नहीं मिलती। इन अशुभ कर्मो की भयावहता से घबड़ा श्री परहंत शरण तेरी पायो । कर छूटकारा पाने के लिए जगतराम जिनेन्द्र से प्रार्थना माता मनिताको समयमा निजी करते हैं
सेठ-धनं-जय स्तोत्र म्च्यो तब ताके सुत को विष उतरायो। अशुभकर्म म्हारी लेरा जी फिर छ, शिवपुर जाने न मान तुग के बन्धन तोडे वादिराज को कोढ मिटायो ।
देव दीनानाथ । कुमुदचन्द्र प्रभु पारसमेंटयों सागरमें श्रीपाल बचायो। भव-भव म्हारी गेल न बांडत दुःख-देतां कुछ नाही उर्मिला की वांछा पूरी भविष्यदत्त को घर पहुचायो।
रैछ। सिंहोदर के संकट माहीं वज्रकरण को मान घटायो ।