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अनेकान्त
भेद भी है और अभेद भी । यदि भेद नहीं माना जाए तो है। सहभावी धर्म गुण कहलाता है । गुण और पर्याय का धर्मी का नाना धर्मों में रूपान्तरित होना असम्भव है । एक श्राधार दव्य है। द्रव्य परिणामी है अतः वह अपनी विभिन्न ही वस्तु रूपान्तर ग्रहण करती है इसलिए अभंद भी है। शक्तियों के द्वारा विभिन्न पर्यायों को उत्पन्न करता हुआ
शाम को परिणमन करता है । जैन दर्शन के अनुसार एक द्रव्य अनन्त लक्षण परिणमन कहा जाता है । लनण परिणमन का अर्थ गुणों का प्राधार है । उस गृण समूह को गुणी दृव्य से
ना और वर्तमान परिमन धिमी पृथक करना असम्भव है । द्रव्य एक द्रव्य में रहे हुए गणों में रहे हा धर्म का अनीत, अनागत और वर्तमान रूप में
को भी गुणान्तर से पृथक करना शक्य नहीं। दव्य जब परिणमन होता है, द्रव्य रूप धर्मी का नहीं । वर्तमान समय
अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा विभिन्न पर्यायों के रूप में में धर्मी का जो स्वरूप प्राविभृत है, वह कालान्तर में विलय परिणमन करना है, तभी गुण से गुणान्तर का भेद उपलब्ध होकर अतीत का विषय बन जाता है और अनागन रूप में होता है । द्रव्य से पर्यायों का भेद दिग्बलाई परता है। जो धर्म धर्मी की सत्ता में दिया हश्रा था, उमका प्राविभाव इसलिए एक दृष्टि से दप, गण और पर्याय में भेद भी है । होना है इसी प्रकार धर्म ममह तीनों कालों को म्पर्श द्रव्य स्वयं ही परिगमन करता है । इसलिए एक दृष्टि से करता हश्रा परिणमन करता रहता है । धर्मी इन तीनों वे तीनों अभिन्न भी हैं । पर्याय उत्पन्न और विनिष्ट होता कालों में धर्मों में विद्यमान रहकर नित्य कहलाना है। रहता है, पर द्रव्य और गण अपने स्वरूप का त्याग न
लक्षण परिणाम का परिणमन अवस्था परिणाम करते हुए पर्यायों में पर्यायान्तर में परिणत होते रहते हैं । । कहलाता है। नया-पुरानापन ही अवस्था परिणाम है । मत- यांग्य्य दर्शन के कार्य की तरह पर्याय भी तीनों कालों के
पिंड से जब घट कार्य रूप में प्राविभूत होता है, तब नया प्रवाह में बहना हया चला जाता है। न इसका अादि है, घट कहलाता है और प्रति दिन पुरानेपन की तरफ बढ़ता न अन्त ही । एक दव्य में अनेक गणों के पर्याय एक समय हुश्रा पुरानेपन में परिणमन करता है। इस तरह अनीन में वर्तमान रह सकते हैं, किन्तु एक गण के दो पर्यायों का कार्य मुदूर अतीत क रूप में और, सुदूर अनागत कार्य
एक समय में रहना सम्भव नहीं। एक विशेप गण दुसरे निकट अनागत के रूप में परिणत होता रहता है।
गण में रूपान्तरित नहीं होता। जेन-दर्शन के अनुसार चेतन सांख्य-योग दर्शन ने इस प्रकार के तीन परिणामों के
म्वरुप प्राम: बद्रावस्था में हो या मुक्नावस्था में, दोनों
अवस्थानों में अपने चतन स्वरूप को नित्य रखते हुए गणों द्वारा परिदृश्यमान जगत की व्याख्या की है। इस तरह
के द्वारा परिणमन करता रहता है। अनन्त काल से कार्य-कारण का निस्वच्छन्न प्रवाह चलता पाता है । एक का लय तथा अपर की उत्पत्ति होती रहती कुछ विचारको का अभिमन है कि अनेकान्त वाद है, किन्तु कारण की सत्ता में उसकी कोई भिन्न मत्ता एकान्तवादो का समन्वय करने के लिए निष्पन्न हया, किन्तु नहीं है।
यह उचित नहीं है । एकान्न दृष्टियों का समन्वय उम्पका जैन दर्शन चतन तब और जल-तत्व, इन दोनों तत्वों फलित है, किन्तु मूल आत्मा नहीं। को स्वीकार करता है। यह जड़ और चनन दोनों को उत्पाद
वस्तु में जो अनेक प्रापेक्षिक धर्म है, उन सबका यथार्थ ध्यय और ध्रौव्यात्मक रूप से प्रतिपादित करता है, उत्पाद ज्ञान तभी हो सकता है, जब अपेक्षा को सामने रखा जाए। ग्यय और ध्रौव्य शब्द से एक ही वस्तु के दो स्वरूप प्रति- दर्शनशास्त्र में पक-अनेक वाय-प्रवाच्य तथा लोक व्यव. भासित होते हैं-१ अविनाशी, २ विनाशी। उत्पाद और व्यय
हार में स्वच्छ-मलिन, सूक्ष्म स्थूल आदि अनेक ऐसे धर्म शब्द वस्तु के विनाशी स्वरूप को बतलाते हैं तथा धीच्य हैं जो श्रापेक्षिक है। इनका भाषा के द्वारा कथन उसी शब्द उसक अविनाशी म्वरूप का वाचक है।
सीमा तक सार्थक हो सकता है, जहां तक हमारी अपेक्षा जैन परिभाषा में धर्मी को द्रव्य और उत्पाद व्यय शील उसे अनुप्राणित करती है । जिस समय जिस अपेक्षा से जो धर्म को पर्याय कहा गया है । वह वस्तु का क्रम भावी धर्म शब्द जिस वस्तु के लिए प्रयुक्त होता है, उसी समय उसी