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विश्व-मैत्री
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वेदान ने मित्रना का यह मंदर्शन ऐक्य या प्रभेद के रूप (१) व्यवहार और सर्वमंत्री-म का अर्थ है व्यवहार में दिया । उपनिषदों का कथन है जब नकद.मरा है भय में पमना । भगवान महावीर ने कहा कि जब तुम इ.मरे बना ही रहेगा। जब सब एक हो तो फिमको किमका भय है, को मारना, मताना या अपमानित करना चाहो तो वहां यह बताया गया। मारा विश्व ब्रह्म है-उसे प्राप्त करते उसकी जगह अपने को रखकर दग्यो। यदि वह प्यमहार ही मारी समस्याये मिट जायेंगी। इंगाई धर्म भी विश्व तुम्हें अप्रिय है तो दूसरे को मा अप्रिय होगा। जिस बात प्रेम को केन्द्र में रखकर विकसित हुआ है।
को नुम अपने लिये ना पसंद करते हो उसका पाचरण जैनधर्म ने यह संदेश मंत्रालय में दिया । यहाँ द.मां के लिये मन करो । हम इसे स्व और पर में ममता माधु नथा श्रावकी कलिय दैनदिन अनठान के रूप में कह मह । इसी का विकाम अहिमा के रूप में हमा जो प्रतिक्रमण का विधान है। इसका प्रयी जानकर या पन- जैन शास्त्र की प्राधारशिला है। जान में लगे हा दोषी लिय परचात्ताप करके श्रामा (२) विचार में सर्वमैत्री-एक ही वस्तु अनेक को पुनः शुद्ध बनाना । प्रनि का अर्थ वापिम और क्रमण पहलू होते है । प्रत्येक व्यक्ति का जदय अपने-अपने पहलू का अर्थ है जाना । सांसारिक प्रवत्तियों के कारण प्रामा पर होता है। उदाहरण के रूप में एक ही व्यक्तिको बहिमुम्बी हो जाता है उसे अंगमुवी बनाकर पुनः अपने एक म्बी भाई कहती है, दमरी पुत्र, तीसरी पिता और म्वरूप में स्थापित करना ही प्रतिक्रमण है। उसके अंत में चौथी पति । ये चारों बाने परम्पर विरोधी होने पर भी संमार समस्त जीवों से नमा-प्रार्थना करके पर्वमंत्री विभिन्न अपेक्षाओं में मन्य हैं। यदि भाई करने वाली स्त्री की घोषणा की जानी है।
अन्य स्त्रियों को झूठी कहेगी नो माय मे दूर चली जायगी। जो व्यक्ति कम-से-कम वर्ष में एक बार इस प्रकार
इसके विपरीत जिम अनुपात में उन धारणाओं का म्यागत मा.मा-शुद्धि नहीं करता उसे अपने पापको जन कहने का
कग्गी उसी अनुपात में मन्य के समीप पायेगी। जैनअधिकार नहीं है । जो मनोमालिन्य को चार महीने में।
धर्म में इस अपेक्षा बुन्धि को अनेकान्त कहा गया है। उसका अधिक टिकाये रखता है, वह श्रावक नहीं हो सकता और।
कथन है कि मन्य पर पहुंचने के लिए विभिन्न रष्टिकोणों जो पंद्रह दिन में अधिक रखता है वह माधु नहीं हो सकता।
का म्वागत करना आवश्यक हमी का विस्तार नययाद
तथा म्याद्वाद के रूप में हुया है, जो कि जन-दर्शन की मित्रता का प्राधार समना है, जहा एक व्यक्ति दूमर
आधारशिला है। वर्तमान राजनीति में यही भावना बोकव्यक्ति में अपने को बड़ा मानना है, अपनी भावनाओं और
तन्त्रक रूप में विकसित हुई है। वास्तविक लोक तन्त्र विचारों के ममान दमा की भावनात्रों और विचारों को
वही है जहां मदम्या को अपने-अपने विचार प्रगट करने की भादर नहीं देना बहो ममता नहीं होती।
पूरी छूट है और सभी पर महानुभूति के साथ विचार जिस प्रकार वैदिक धर्म में मंध्या नथा हम्जाम में किया जाना है। समाज का निभ्य-कृश्य के रूप में विधान है उसी प्रकार (३) न्याय में सर्वमंत्री-प्राचीन समय में न्याय का जन-धर्म में मामायक का है। इसका प्रथ-पमना की का प्रतिशोध रहा । उसका कथन था कि यदि कोई पाराधना । जैनधर्म और दर्शन का विकाम इसी को केन्द्र तुम्हारी प्राग्व फोरना तो उसकी प्राग्य फोड़ दो। यति रखकर हुअा है।
तुम्हारा धन छीनना है तो उसका धन छीन ली। यदि तुम्हारी यहाँ ममना या मर्वमंत्री को अनेक रूपों में उपस्थिन पनी माथ बलात्कार करता है तो तुम भीमा ही कगे किया गया है। यदि उनका अध्ययन विश्व की वर्तमान यह न्याय है। कालान्तर में यह अधिकार व्यक्ति के हाथ समाम्यामो को लक्ष्य में दबकर किया जाय तो बहुत मे में हीमकर राजा या किमी प्रतीन्द्रिय मना के हाथ में समाधान मिल सकते हैं। संज्ञप में उन्हें नीचे लिखे अमुमार दे दिया गया किमतु दण्ड का रूप वही रहा। जैन-धर्म का उपस्थित किया जा सकता है।
कथन है कि अन्याय या पाप करने वाला अपनी मामा को