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शब्द-माम्य और उक्रि-साम्य
१०१ बौर परम्परा में महंत शब्द का प्रयोग इसी प्रकार प्रास्त्रव और मवर-ये दोनों शब्द भी जैन और बौद्ध पज्य जमों के लिए किया गया है। म्वयं तथागत् को दोनों परम्परामों में एक ही अर्थ में मान्य दिखलाई स्थान-स्थान पर पहन सम्यक मंबुड कहा गया है। पढ़ते है । भगवान बुद्ध के निर्वाण के पश्चात पांच सौ भिक्षुओं की दीक्षित होने के अर्थ में एक वाक्य दोनों परम्परामों जो मा होती है. वहां प्रानन्न को छोड़ कर चार मौ में रूद जैसा पाया जाता है। जैनागमों में ४ 'प्रागाराम्रो निन्यानवे भिक्षु अर्हत बनलाये गये हैं। कार्य प्रारम्भ के प्रशगारियं पम्बहल' बौद्ध शास्त्रों में "मगारस्मा अवसर तक भानन्द भी आहत हो जाने हैं।२ बौद्धागमों अनगारनं पव्वाजम्ति" में बुद्ध और जैनागमों में महत् शब्द के तो प्रगणिन सम्यकदृष्टि, मिथ्याष्टि- ये दोनों शब्द भी एक ही प्रयोग है ही।
अध में दोनों परम्परामों में मिलने है। जैन और बौद्ध धे-स्थविर शब्द का प्रयोग दोनों ही परम्परात्रों में दोनों ही अपने-अपने अनुयायियों को सम्यक् रष्टि और वृत या ज्येष्ठ के अर्थ में हुचा है। जन परम्परा में ज्ञान, इतरमत वालों को मिथ्या- प्टि कहते हैं। वय दीक्षा-पर्याय प्रादि को लेकर अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये उपोमाथ-हम शब्द का प्रयोग दोनों परम्परामों में प्रयोग जैन आगमों के हैं।
मिलता है। दीघनिकाय में भगवान बुद्ध ने जैनों के बीन्द्र परम्परा में १२ वर्ष से अधिक के सभी भिक्षुओं उपोमाय की मालोचना की है। के नाम के साथ थेर या थेरी लगाया जाता है।
वरमण-यत लेने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग दोनों भन्न-ज्य और बरों को आमन्त्रित करने में भन्ने परम्परामों में दम्या जाता है। (भदन्त) शब्द दोनों ही परम्परामों में एक है। से नथागत-मुग्थ्यतः यह शब्न बौन्द्र परम्परा का है। कणटण भन्त, में गूगं भन्ने, मेवं भन्ने, मन्वं भन्ने, जनागमों में भी यत्र तत्र उपलब्ध होता है। प्रादि । ये प्रयोग जन भागमों के हैं। बौद्ध प्रागमों में "कमो कमाह मेहावी उणान्ति तहागया । भी भन्ने शब्द की बहुलता है।
नहागया उप्पडिक्कन्ता चाय लोगम्मनुत्तरा।" अउमी-पमान या छोटे के लिए पाटय (प्रायुष्मान) विनय-विनय शब्द का दानों परम्पराधों में महत्व है। शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराधों में समान रूप से मिलता
मानविय विनय है। भगवान बुद्ध को भी प्रावुम' गौतम कह कर सम्बोधित
शब्द का प्रयोग है। विगय पिटक इसी बात काम् चक है। करते थे। गोशालक ने भी भगवान महावीर को प्राउमो
जनागमों में भी अनेकों अध्ययन विनय प्रधान है। कासवां कहा है।
दशकालिक मूत्र का नवम अध्ययन विनय मकाधि नाम श्रावक, उपासक, श्रमणोपासक-श्रावक शब्द का प्रयोग
से है। उसकी प्रथम उक्ति है-"थंभाव कोहा व मयप्प दोनों परम्परात्रों में मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार उपका अर्थ गृहस्थ उपासक है। बौद्ध परम्परा में इससे
माया, गुरु मगासे विणयं न मिकावे ।" उत्तराध्ययन सूत्र भिक्षु, शिष्यों का बोध होता है। उपासक और श्रमणो
का प्रथम अध्ययन का नाम भी विनय श्रन है और वहां
यही कहा जाता है- विणयं पाठ करिम्मामि, प्राणुपासक शब्द अनुयायी गृहस्थ के लिए दोनों परम्परामों
पुस्वि मुह मे । में प्रयुक्र हैं। १ दीघ निकाय, माज्जफमुत, १८२।
६-जैनागम, समवायांग मूत्र स०५, बौद्ध शास्त्र, २-विनय पिटक, पंच शतिका म्कन्धक ।
मश्मिम निकाय २॥ ३-भगवती मूत्र ७.३.२० ।
-भगवती मूत्र 11-१२.४ा। ४-भगवती सूत्र शतक १५ ।
८-महावग्ग । १-मझिम निकाय।।
१-सूत्र कृमांग सूत्र २.१.१२०.६२५ ।