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अनेकान्त
कितने दुर्वल हो गये होंगे इसका श्रासानी से हम अनुमान मकान या अन्य किसी भी सान्ति के मामले को मार पीट, लगा सकते हैं बाद को कोई सज्जन पकवान की थाली लेकर हत्या और मुकदमें वाजी नक हो जाती है, इसका तात्पर्य यही उसके सम्मुख पाये, उसे भी ईश्वर की कृपा समझकर कि अपने भी अब पगये हो गये, पर यदि पराये व्यक्तियों ४८ दिन के भूखे परिवार ने ईश्वर को भोग लगाकर प्रसाद को अपना बनाने की कला हममें भाजावे तो अनेक समस्याएँ समझकर पाने की तैयारी ही की थी, कि अचानक कोई सुलझ सकती है । महाभारत में दूसरे प्राणियों के साथ भी ग्रामण देवता श्रा पहुंचे। उन्हें अतिथि समझकर उन्हें अच्छा व्यवहार करने की बान कहा गई है :भोजन कराया और अपना सौभाग्य माना कि आज भी जीवितु यः स्वयं चछ-कथं मोऽन्यं प्रघातयेत् । अतिथि को बिना खिलाये हमें न खाना पड़ा। अतिथि को यद्यामनि चच्छत तत्परस्यापि चिन्तयेत् । विदा ही किया था, कि एक शूद्र पाया, उसने भोजन की
अर्थातः-जो स्वयं जीवित रहना चाहता है वह दूसरों इच्छ। प्रकट की, और तब तक एक चांडाल कुत्तों को लेकर
__ की हिंसा कैसे करें? मनुष्य अपने लिये जिन बातों की मा पहुँचा थोड़ा सा भोजन तो था ही वह भी उन पत्र में
इच्छा करता है वही दूसरों को भी प्राप्त हों-यही वितरित कर दिया। अब यही सोचा कि थोड़ा सा जल
सोचना चाहिए। जो शेष है इसी को सब थोड़ा-थोड़ा बॉट कर पीलें पर
दूसरों की सेवा और सहायता को तो अलग कीजिए वह भी उनके लिये न था एक चाण्डाल जिसका गला प्यास
जान बूझकर दूसरे प्राणियों को मताना, काल करना. और से सूग्वा जा रहा था, दौड़ा-दौडा उधर पाया और पानी
मारना कितना बड़ा पाप है? इस तरह की कुत्सित भावना की याचना करने लगा, धन्य है रन्तिदेव की उदारता और
जैसे जैसे मन में बढ़ती जाती है हमाग जीवन संकट में दयालुता जो बचा हुअा जल भी चाण्डाल को देकर प्यास
पड़ता जाता है, फिर उस संकट से बचना बड़ा कठिन होना घुमाई, और स्वयं परिवार के सभी सदस्य उस दिन भूखे
है, इस हिंसक शक्ति से बचने का एक ही माध्यम है और और प्यासे ही रहे।
यह है अहिया, प्रत्येक प्राणी से प्रेम सम्बने की भावना ही जिस व्यक्ति में हमारा ममत्व होता है उसके दुःख को अहिया में छपी है। दवर्षि नारद ने पाठ पुष्पों की अर्चना हम देख नहीं सकते उसे कोई परेशान कर, धमकी दे, तो में ईश्वर के प्रसन्न होने का संकत किया है उनमें पहला हम बदला लेने के लिये अथवा रक्षा करने के लिए दौड़ पुष्प अहिंसा (अहिमा प्रथम पुरष) ही बताया है। यह पढ़ते हैं जो व्यक्ति अपने हैं. उनके दुख, दरिद्रता तथा पुष्प जहां भी चढ़ाया जाता है सफलता प्राप्त की जा सकती पेरशानियों को दूर करना हमारा कर्तव्य हो ही जाता है हैं। आज युद्ध की विभीषिकाओं, तथा सेना पर होने बाद जिन्हें पराया समझते है, उनके दुःख को हम देग्यने रहते हैं व्यय से सभी राष्ट्र परेशान हैं फिर भी युद्ध की नैयारियो
और कष्ट देने में भी कोई संकोच नहीं होता, इस मरह से से अपना पिगड छुड़ाना नहीं चाहते, इमर्सन ने चेतावनी अब यह बात सिद्ध हो गई कि समस्त बुराइयों की जड़ी दी थी "पता नहीं युद्ध मनुष्यों को इतना प्रिय क्यों है अपने और पशये के भेदभाव में है। यदि सबको अपना जबकि उसे मनुष्य एक दम प्रिय नहीं हैं।" इसी सम्बन्ध समझे, सबके साथ अपने प्रिय जनों जैसा व्यवहार करे सो में टालस्टाय का कथन भी स्मण हो पाना है “सेना हत्या समाज में सुखी जीवन सभी यतीत कर सकते हैं। महात्मा करने का माधन है। सेना को बनाना या रखना हत्या गान्धी ने कहा भी है 'तुम्हारे कार्य से किसी को दुःख न पहुंचे. करने की तैयारी करमा है 'हिमा' मारकाट से शान्ति नही इसका ध्यान रखना, एवं इसके अनुसार कार्य करना तुम्हारा मिल सकती क्या खून से खूनधुल सकता है।" कर्तव्य है। पर आज के व्यक्ति में इतनी स्वार्थ परता मंसार में अधिक से अधिक व्यक्ति तक अहिंसा की भागई है कि उसका कुछ कहना ही नहीं म्यवहार मे चोड़ी सी बात पहुंचे, और अहिंसा के साम्रज्य की स्थापना हो तो कमी भा जाने पर भा माता, पिता, भाई, हन और चाचा हिंसा की भंयकरता से बचा जा सकता है, क्योंकि विनाश बाल इत्यादि से भी अथवा सम्बन्ध विच्छेव कर लेता है. खेती. की इस प्रकृति के सम्बन्ध में जार्ज नीईशा ने बड़े जोर