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भण्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद
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................."अनंत मन ....बंध नरकै सकति कैसे होति कायु कीये की। सुरणि को गुरु मापु संस्तुति जयषित ............. ... ... ... 'पट्ट बीये की॥ अंबुनिधि कल्पंत काल के पवन कैसे मनुष्य के भुजा बलु होइ पार ली.... . ... ... ... ... • रौ सब गुनम म्यौ ताकी को भगति मति होइ दाउ दीये की ॥ . . . . . . 'ध सठनिको राउ है अनाथ बंधु तुम्हारी भक्ति मोपै संस्तुति करावे । हौं तो निपट अथामी ताहि जा.. तुम्हारी यो प्रीति मेरी रसमै सिपाये ज॥ नाही कछु मेरे गुनु एकह प्रषिर करे तेरेउ प्रताप नाथ तूही मा....... धनुदास' ... 'हु मृग - कैमा मुहै सुन मृग हू के जीव जुरि जुछ कह प्रावै ॥२॥ अति ही प्रजि वेदनि की न जाने गति मेरी बुध मंदन ठंठ..."है। प्रापु ही स्तुति पाई उर कछु उपजावे गुन मेति ....."वायु हो करति है। जैसे कालका किलम की मानवी वसंत रितु अंकको कलिका कम्बी स्वै में .... है। पवह गुण को..........."लीन तेरे कछू प्रभुको परम प्रीत पाई मिषटति है ॥६॥ . . . . . . 'म नामु सुमिरै जु तेरी माथ ले ताके बह जनम के पातग हरत है। नरक जवैया जे....."महैया तुष दुर्गति...."उ नेरौ नाम लै भौ-सागर तिरत है। नमके समान पाइ पालाजि रहत पाप रविक समान प्रभु उदोतु करतु है। धनुदास पा सक्यौ प्रतापु ताको कही पर धन्नि बड़भागी जे जे हदे में धरत है॥७॥ त्रिभूवननाथ के साथ श्रीनाथ बंधु तुम्हारी भगनि कार्य राजै मति मोरनी। जैसे ही कुकड़ होतु चंदनु प्रा सु तसे ही प्रगट बुधि..............'नी॥ नातुरु जनम पाइ नर अवतार भाइ तथा ही गवाय गुनु..........."नी । धनुदाम"पंकज द..'थ जैसे मोभीयति जलहू की बिंदु दुति देषये मोतीयन की ॥८॥ तुम्हारी स्तुति कीय उमा.......रहौ प्रभु का नहीं पर दोष पबह हरण है। सूछिम कथा कहानी कहै ....."कदिंच लपत ..." जग ही पै....."की करणि है। जैसे हम अंस माह मरमै सरोजिनी के प्रानंद.........रि........है। तैमे...."दीरघ देव दीरघ प्रतापु नरी दीरघ गुरणि भाषी धनका वरणि है ॥६॥ तुही प्रभुतु त्रिभुवन के भूषण नाथ मापनै ममान जानु पापुनु करण की। जो तनु तुम्हारे गुन जानतु तिकै करि सो ...."तुम्हारे .... रहे परण को ।
और जौ सेवगु लघु-लघु वेद मुष धनुदास सेव और कौन के चरण कौ ॥१०॥ तुम्हारे बदमु देष निरषि नयन नाथ पलकसौ पलक लगाए कैसे जान है। नाहि नै त्रिपति होत रहै इक टिगुलाइ सुषको समाह वर्ष भारी लखचात है ॥ छीरोदधि पीयौ है जिहि छीर समता को मनुवा ही पयपान में पणतु है। धनुदास सोह केम इछवतु वारी जल भंमृत को छादि कौर विषफल पान है ॥ जे सान्त राग रुचि हती परिमाणु नाथ तिन को तू तिहलोक एकै निरमापीयो। उतनीय हती वे सही के किन निरचएन जितनी निकै जू.."तेरी रूप गुनु थापीयौ ।
और जो कनिका कहू रहै होने भवमांक तौ नौंको उ हो तो और पु · पुण्यको प्रतापीयौ । धनुदाम प्रभु तरी मुरति की समता को देषतु न काह पवु जगनु पपापीयौ ॥१२॥