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अनेकान्त
इसी प्रकार प्रत्येक चित्र के भावों को बड़ी खूबी के साथ ऐसे है कि जिनका व्यवहार प्राज भी उस प्रदेश में होता है। अकित कर स्तोत्र को लोभोग्य बनाने का पूर्ण प्रयास किया नस्यत्वशास्त्र के प्रकाश में इन चित्रों का अध्ययन किया है। प्रत्येक चित्र में चौकी पर, कहीं सिंहासन पर मानतु. जाय तो स्पष्ट पता चलेगा वित्र कि कितनी वास्तविकता और गाचार्य का चित्र है। जिस चित्र का जैसा भाव है वैसी लाक्षणिकताओं से संयुक्त है कलाकार मनोहरदास ने एक ही उनकी मुम्बाकृति का पूजन किया गया है। कहीं-कहीं कमी अवश्य रख दी है कि सामान्य पुरुष और मारियों के पुस्तक रखने की ठवणो और माला भी बनाई है। फिपी चित्रों में जितना सौंदर्य बिखेरा हैं उतना ऋषभदेव और चित्र में प्राचार्य के निव-प्रतीक भी है। सभी चित्र दिगम्बर मानतुगाचार्य की प्रतिकृति में नहीं। फिर भी इनकी सशक्त महा के परिचायक हैं । इस प्रकार ४८ चित्र मूल रचना के रेखाएं इनके अलौकिक पक्तित्व की गंभीर झांकी तो करा हैं और ५६ वां भक्तामा को माम्नाय के रूप में ग्रहण ही देती हैं। क्लासिकल पार्ट की अपेक्षा इन चित्रों को करते हुए धनराज का है जो अपने गुरु से इसका पाठ सुन लोकचित्र कहना कहीं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। रहे हैं । एक विशाल ग्यास पीठ पर किसी मुनि का चित्र इस प्रकार की रचनाएं और भी प्राचीन जैन ज्ञानागारों हैं। सामने पानों बधु जिज्ञामा की मुद्रा में करबद्ध अव. में उपलब्ध की जा सकती हैं, पर एतदर्थ अन्वेषण की स्थित है। यह चित्र स्वत रग का है। शेष चित्र रंगीन अपेक्षा है। स्यौपुर की परिधि में और भी पता लगाया जाय है, जहां जिस रंगकी प्रावश्यकता थी, ठीक उसी का सफल तो अनेक ग्वालियरी भाषा की जैन रचनाएं सहज मिल प्रयोग किया गया है।
सकती हैं। क्योंकि गवालियर-मंडल के ज्ञानभंडारों का यहां इतना कहना पर्याप्त होगा कि चित्र मुगल शैली समुचित मुल्यांकन अभी नहीं हो पाया है। के हैं। और प्रदेशगत विकला की मौलिक सामग्री प्रदान
भक्तामर स्तोत्र पर प्राज के अनुशीलन प्रधान युग में करते हैं। चतुर्थ चित्र और अंतिम चित्रों से मुगलकालिक पह
काम होना चाहिए और उसका समीक्षात्मक संस्करण की नाव का पूरा प्रभाव परिलक्षित होता है परन्तु कलाकार ने मुगल आवश्यकता तोही जिस में समस्त टीकाएं और अनवादों प्रभाव से प्रभावित होने के बावजूद भी अपने प्रदेश के कलो
पर अध्ययन प्रस्तुत हो । व्यानंद पंचाशिका का मूल इस पकरणों का पूरा ध्यान रक्या है । नारी, पुरुषों के पहनाव प्रकार है:
भक्तामर स्तोत्र हिन्दी अनुवाद
.............. ही पर ऐसे जिनवरजू के भक्त अमर है। जिनके मुकट समसत रतन मयकंचन जटित महा सोभित..................॥
.... 'लटक ही प्रभु के चरण पर प्राभा नपनि में व्यापी मानों दिनकर है। धनुदाम मेवइ जिन चर । .........
......... पापु वांगमय करें और करि काहि श्रावई। सुरलोकहू के नाथ नरलोकहू के नाथ..... अवर जितने भव्य त्रिभूवन माझ वमै तिनकै हरति मनहू को भल भावई ॥
....... "गीत के वाई सो धो पारू कैसे पावई ॥२॥ .................... को हीनौ नाथ प्रौसौ सह चाह तेरी संस्तुति कहन को। कबहू तो बुधन की मंगति करीन..... ........"लहन को। राकापति प्राभा जल माह को प्रकास दे चालक के मनु शीश हातु..........।
....... राजमें कहायै भई प्रभुकी भगति उर अंतर रहन को ॥३॥