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जैनसाहित्यमें आर्य शब्दका व्यवहार
(साध्वी श्री मंजुलाजी)
मनुष्य की भांति शब्दों का भी अपना इतिहास होता दूसरे के भाव शब्दों के सुकोमल यान पर पर्यारूढ़ होकर है और उसे जानने के लिए शायद साहित्य से बढ़कर कोई एक दूसरे की प्रामा का म्पर्श करते हैं, अतः शब्दों का कम पर्याप्त माध्यम नहीं होता। क्योंकि साहित्य में जो तथ्य मूल्य भी नहीं है। अनायास और निरुदेश्य उल्लिखित होता है वह अति रंजन मनोमानी
और अरंजन दोनों से अनाविल रहकर अवतरित होता है। है लेकिन व्यक्तिशः हर शब्द की क्षत्रीय सीमा व कालअतः सच्चाई के बहुत निकट होता है।
मान पृथक-पृथक होता है । तथा यह भी होता है कि एक शबूद भावाभिव्यक्ति का साधन मात्र है, इसलिए शब्द उद्भव के समय चरम उत्कर्ष की स्थिति में होता है शब्द का स्वयं में कोई अधिक मूल्य नहीं है। लेकिन एक और कालान्तर में वही अपकर्ष की स्थिति में पहुंच जाता
(पृष्ठ ५६ का शेष) के चन्द्रमा (पट्टधर) सुहससि (शुभचन्द्र) ये ।१४ इसके में भ. शुभचन्द्र की शिष्या डाहीबाई का तथा एक अन्य प्रागे भोजराज का वंश प्रादि परिचय देते हुए उसके या में केवल उनका अपना नामोल्लेग्व पाया जाता है, किन्तु उसके पुत्र संसारचन्द के राज्यकाल में सं० १५७१ में इन अभिलेखों में समय निर्देश कोई नहीं है ।1८ घटित एक धर्म प्रभावक घटना का उल्लेख हुमा है । १५
इस प्रकार भ. शुभचन्द का सुनिश्चित ज्ञात समय नदुपरान्त घत्ता-२ में संघाधिप ग्रह्मदेय (अमरसिंह मन्त्री
वि. म. १४७१-१४६४ है । इनके पट्टधर भ. जिनचन्द की के पिता) ने जिस गुरु के उपदेश से वह धर्मकार्य किया
सर्व प्रथम ज्ञात तिथि वि. सं. ११०२ है। अतएव शुभचन्द्र था उनका नाम दिया है-मुद्रित प्रशस्ति में यह नाम
का निधन सं. १४१४ और १५०२ के मध्य किसी समय 'पहचन्द गुरु' प्राप्त होता है ।१६ किन्तु ऐसा लगता है
हुश्रा हो सकता है । कितु यदि जिनचन्द्र की पटारोहण कि प्रतिलिपिक या मुद्रक के दोष से 'सु' का 'प', अर्थात
तिथि ११०७ ही हो और उससे पूर्वका उनका सामान्य 'सुहचन्द' का 'पहचन्द' बन गया। यहां निश्चय ही
मुनिजीवन गुरु के जीवन काल में ही बीता हो तो इन्हीं भ. शुभचन्द्र से प्राशय रहा प्रतीत होता है, किन्हीं प्रभाचन्द्र से नहीं ।१७ बीकानेर से प्राप्त एक प्रतिमा लेख
शुभचन्द्र की मृत्यु वि. सं. १९०६-७ में हुई होनी चाहिए भ, शुभचन्द्र के पट्टकाल का प्रारंभ वि. सं. १४७१ के
पूर्व तो अवश्य ही हुमा किन्तु कितना पूर्व या कब हुश्रा १५. जैन प्रन्य प्रशास्ति संग्रह, भा०२ पृ० न०१०१, पृ. १२८ इस पुस्तक के विद्वान सम्पादक पं.
यह उनके स्वयं के पूर्व पट्टधर भ. पअनन्दि की अन्तिम
तिथि के निर्णयपर निर्भर है। परमानन्द जी ने प्रशास्ति के इस प्रशं के जो पता
क्रमशः अर्थ लगाये हैं वे ठीक मालूम नहीं होते देखिये
उसी की भूमिका पृ.१७.८६, १२६, १३० पद्मनन्दि के शिष्य भ. प्रभाचन्द्र पट्टधर थे। १५. वही-१६. वही
बस्तुत प्रभाचम्द तो पश्ननन्दि के गुरु थे। शिष्य
महीं । इस नाम के उनके किसी शिष्य का पता १७. संभवतया 'सु' का '' हो जाने की भूल के कारण ही 'पं. परमानन्द जी ने भूमिका (पृ.
महीं चलता। ५६) में यह लिख दिया कि 'उस समय १८. बीकानेर जैनलेखसंग्रह, न. १८१२ और २८३%