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अनेकान्त
निशानसातल में राजा, विदूषक, ऋषिकुमारों भादि पार्य और म्लेच्छ, उनमें प्रार्यो को अनेक भागों में सभी के लिए मार्य शब्द व्यवहत हुभा है. जबकि जाति किया गया है। । जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, क्षेत्रार्य प्रादि । सबकी भिन्न-भिन्न पी। जैन साहित्य और भी व्यापकता यह सारे अर्थ प्रज्ञापना में प्ररूपित अर्थ के ही संवादक हैं। लिए हुए है। यहां पार्य शम्द किमी एक ही अर्थ की तस्वार्थ स्त्रोपज्ञ भाष्य में एक जगह प्रार्य शब्द का दूसरा सीमा में बंधा हुमा नहीं रहा।
अर्थ भी किया गया है। वहां अनेक प्रकार के प्रार्य बतलाए जैबागम व मागमेतर दोनों ही प्रकार के साहित्य गए हैं। उनमें एक शिल्पार्य भी बनाया गया है और मार्य शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुमा है। प्रागमों शिल्पायें४ में तन्तुबाय, कुलाल, नापितः, तुन्तवाय आदि को में शायद ही ऐसा मागम हो जहां किसी न किसी अर्थ में गिनाया गया है। इनको धार्य इलिए कहा है कि ये अम्प प्रार्य शब्द का उल्लेख न हया हो । बहत पारे स्थलों पर सावद्य और पर्हित आजीविका करने वाले होते हैं। एक ही अर्थ में पार्य शब्द को दोहराया गया है तथा नवीन पृथ्वीचन्द्र चरित्र में आर्य और अनार्य की एक अन्य पर्यों की स्फुरणा भी काफी जगह हई है। प्रानुन लग्न में परिभाषा दी गई है। साधु जहां विहार करते हैं, वहां के का एक प्रागमों तथा प्रागमेतर ग्रन्थों में व्यवहत मार्य लोग श्रार्य और माधुओं का जहां विरह हो, वहां के लोग शब्द का विश्लेषण किया जा रहा है।
अनार्य हो जाते हैं। इसलिए आज वे भी देश अनार्य हो प्रज्ञापना के प्रथम पद में आर्य शब्द का प्रयोग अनेक
गए जो पहले आये थे। यहां त्याग के संम्कार विशेष रूप
से आर्य बनते थे, ऐसा सूचित होता है। अर्थो में हुआ है। जात्यार्य, कुलार्थ, कार्य, क्षेत्रार्य प्रादिपादि। यहां प्रार्य शब्द अनेक अर्थो में तो प्रयुक्त हुश्रा
औपपातिक सूत्र में भगवान की दशना का वर्णन है। है पर मांगीण व्यापकता फिर भी नहीं आई। यहां बताया
वहां बताया गया है कि आर्य और अनार्य मभी अपनी गया है कि धार्य यह है, जिसकी जाति आर्य है, कुल पार्य
भाषा में उप प्रवचन को सुनने हैं और परिणत करते है । हैं। कर्म प्राय का मतलब है, जिसकी क्रिया सम्यक हों।
यहां आये और अनार्य में विभिन्न भाषा भाषी देशों के यह फिर भी थोड़ा व्यापक है, लेकिन उन कार्यो में ग कर्म
लोगों के लिए व्यवहत हुअा है। सूत्रकृतांग में एक स्थान चार्य कर्म है जो लोक में अनिन्दनीय है, फिर चाहे वे
पर अनारम्भी७ के अर्थ प्रार्य शब्द पाया है। वहीं दूसरी
लगह भगवान के विशेषण के रूप में पाया है जो श्रेष्ठत्व कितना ही कर क्यों न हों वे अंछ कर्म भी बार्य नहीं गिने जाते जो लोक में गईणीय हो। यही बात क्षचार्य के ३-तत्राद्या जातिकुलकर्मादिभेदभिन्नाः (जैन सिद्धान्त बार में है। जैन आगमों में माद काम प्राय देशों का दीपिका प्र० ३ सू०२४) उल्लेख पाता है। उस समय जो देश आर्य गिनं जान थे -शिल्पार्या:-तन्तुवाय, कुलाल नापित तुन्तुवाया अल्पउनमें से कइयों में बाज आर्यता का लंश भानही है। सावध प्रगर्हिन जीवा : (तत्वा० स्वोपज्ञ भाष्य) कई देशों के नाम बदल गए हैं तो कई नए देशों में शिष्टता ५-विहारात विरहात साधो, रार्याभूता अनायिका, अनार्या वारता का बहुत अच्छा विकास हुआ है। ऐसी स्थिति
अभवहे शा कृत्यार्या अपि सम्प्रति (पृथ्वीचन्दचरित्र) में आर्य शब्द की उपरोक्त परिनापा शाश्वनिक न होकर ६
-तसिं पच्वमि प्रारिय मणारियाणं अप्पणो समामाए परिमार्मायक हैं, यह अनुमान सहजना ही हो जाता है।
णामेण परिणम । प्रारिय मणारियाणं आर्य देशोत्पन्न
तदितरन्नाराणां (सू. ३० उ. धर्मकाथा अधिकार) उमाम्बाति ने मनुष्य को दो भागों में बांटा है, थार्य
७-श्रारिए जाव मन्च दुक्खपहीण मग्गे (सू. १२ और म्लेच्छ। जैन सिद्धान्त दीपिका में हमी का विश्लेषण
प्र.१ धर्म अधर्म पदा) -अरिएहि पवेहए (मा. करते हुए बताया गया है-- मनुष्य मात्र के जो दो भेद हैं२,
प्र.७ प्राय स्तीथी कृद भी (उ० ३ सू० २०४) १-प्रार्या म्लेच्छाश्च क (तस्वार्थ प्र.३ सू. ११)
-प्रज्जति समणे भगवं महावीर (सू० ७. २५० २-प्रार्या म्लेच्छाश्च (जैनमिद्धान्तदीपिका प्र० ३ सू० २३) पंडुरिक)