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अनेकान्त
दिगम्बर कवियों के रचित वेलि साहित्य
'श्री अगरचन्द नाहटा' कुछ वर्षों पहले जब श्री नाथूराम जी प्रेमी के प्रकाशित यात्राों और इतिवृत्त के संबंध में जितना प्रचुर साहित्य दिगम्बर जैन साहित्य की सूचिय ही देग्बी थी तब तक ऐसी श्वेताम्बर कवियों का मिलता है, उतना दि. कवियों का नहीं ही धारण थी कि श्वेताम्बर कवियों की तरह दिगम्बर मिलता, फिर भी परिमाण में चाहे कम हो पर अनेक प्रकार कवियों ने विविध प्रकार की फुटकर रचनायें नहीं बनाई
की फुटकर रचनायें दिग. कवियों की रचित भी प्राप्त हो है । पर जब दिल्ली नागौर और जयपुर के दि. शास्त्र
गई हैं । और भविष्य में उनकी जानकारी और भी अधिक भण्डारों की सूचयाँ बनी तथा उन भण्डारों के महत्वपूर्ण
प्रकाश में पाना सम्भव है। नागौर के भट्टारकीय भण्डार गुटकों को देखने का अनमर मिला तो वह पूर्व धारना गलत सिद्ध हुई। यद्यपि विताम्बर कवियों की तरह विविध
श्रादि में जो मकड़ों गुटके है उनकी अभी तक पूरी सूखी प्रकार की फुटकर रचनाओं की इतनी प्रचुरना दि. कवियों
ही नहीं बन पाई है इसी तरह अनेक शास्त्र भण्डार
हा न की रचनाओं में नहीं पाई जाती, उदाहरणर्थ नीयों की होंगे।
व दिय कुद कूदल वादि थ य मन रंजन ।। विजयकोनि की अभी तक कोई रचना हमें प्राप्त नहीं वादि तिमिर हर मूरि वादि नीरमहसुधाकर। पूर्वाचार्यों की रचनाओं की प्रतिलिपि करवा कर शास्त्रवादिबिट वन वीर व दि निग्गरण गुगाया गर ।। भण्डारों में विराजमान करने एवं उनके स्वाध्याय का प्रचार वादीद्र मिरगति गदि मून मचि दिगवरह। करने में अधिक रुचि दिग्वलाई थी । मे ये अपने योग्य कहि जानभूषण मा पट्टि थी पिजयकोति, जगपति ग के योग्य शिष्य थे और इनके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र
वरह । ५। कितने ही प्रन्यों के रचनाकार थे। विजयकीर्ति केवल मानवों द्वारा ही पजित नहीं थे विजयकाति शास्त्रार्थ करने एवं साहित्य का प्रचार कर कितु देवता और पशु पत्नी भी उनसे शिक्षा प्राप्त करते थे। ने के साथ साथ नव मन्दिर निर्माण एवं प्राचीन मंदिरों वेश्राम यान में लीन रहते और अपने ज्ञान को मनी
का जीणोद्धार भी करवाते थे। इन्होंने संवत् ११६. की मानवों में समान रूप से वितरण किया करने। वे शरीर में
माघ कृष्णाः१५ को नथा संवत १५६० की वैशाख शुक्ला २ कमनीय एवं वाणी से कल्याणकारी थे। प्रकृति में शान्त
की शान्तिनाथ म्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई। थे तथा तत्व चितन में लगे रहतं । इमी को शुभचन्द्र ने
संवत् १९६१ चैत्र ३ वुदिः ८ को नेमिनाथ की मूर्ति की तथा निम्न रूप में कहा है:
हमी वर्ष के चंगाग्व शुक्ला को स्नाय की मूर्ति की मुग्नर वगचर चामचद्र चचिन चरण द्वय ।।
स्थापना कराया। संवत् १५६८ की फाल्गुण शुक्लाः५ समयमार कामार हमचर चितित चि.मय ।। को श्री मद्य ने श्रापकी बहिन प्रायिका देवश्री के लिये पम
नंदि पंचविशतिका की प्रति लिग्नधागधी दक्ष पक्ष शुभ मुक्ष लक्ष्य लक्षण यनिनायक ।
विजयकाति संवत १५५७ से १५६८ नक भट्टारक रहे ज्ञान दान जिन गान भव्य चातक जलदायक ।। कमनीय मूर्ति मन्दर सूकर धर्म शर्म कल्याणकर ।
इन्होंने अपने जीवन में जो साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्य जय विजयकोति मगेश वर श्री श्रीवर्द्धनमौख्य व.
किय वे चिरम्मरणीय रहेंगे। ॥७॥ १.२.३.४.५. दग्विये भट्टारक मम्प्रदाय पृष्ठ ११४ १५५
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