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दिल्ली पट्ट के मूलसंघी भट्टारकों का समय क्रम
(डा. ज्योति प्रसाद जैन एम० ए० एल एल० बी०, पी० एच० डी०, लखनऊ) मूलसंधान्तर्गत नन्दिसंघ-सरस्वतीगच्छ-बलाकारगण- साहित्यिक एवं शिला लेखीय प्रमाण अधिकाधिक प्राप्त होने कुन्द कुन्दान्वय की उत्तर भारतीय शाग्वा के दिल्ली पह लगते हैं जिनके आधार पर उक्त गुरुत्रों के पटावली प्रतिकी स्थापना का श्रेय भट्टारक प्रभाचन्द्र को है। इस पादित समयादिक की जॉच की जा सकती है। परम्परा की पट्टावली के यह ८४ वें गुरु थे । इनके उपरान्त पावली में अभयकीर्ति से जिनचन्द्र पर्यन्त प्रत्येक क्रमशः पद्मनन्दि, शुभचन्द्र एवं जिनचन्द्र इस पट्ट पर बेटे। भट्टारक का पटारोहण वर्ष विक्रम संवत् में निम्नक्ति दिया प्रभाचन्द्र के समय तक उत्तर भारत में इम मंघ का एक गया हैही अम्बंड पह था । मर्व प्रथम उनके समय से ही शाग्य। अभयकीर्ति -१२६४ पद स्थापित होने प्रारम्भ हुए, किन्तु उनके पट्टधर पानन्दि वसन्तकीर्ति --१२६४ के पट्टकाल के अन्त तक जो भी शाग्वापट्ट बने, व प्रधान प्रख्यातकीर्ति -१२६६ या केन्द्रीय पद के ही अधीन रहे। पद्मनन्दि के उपरान्त विशालकीनिरसागवाड़ा, सूरत, ईदर मालवा प्रादि के जो कई शाखापट्ट शुभकीर्ति -१२६८ स्थापित हुए वे केन्द्रीय पटट से प्रायः स्वतन्त्र हो चले ।
धर्मचन्द्र -१२७१ पप्रनन्दि के प्रपटट्टर जिनचन्द्र के उपरान्त तो स्वयं दिल्ली
रत्नकीर्ति -१२६६ पटट भी चितौड़ एवं नागौर नामके दो शाग्या पट्टों में प्रभाचन्द्र -१३१० विभक्त होकर दिल्ली से स्थानांतरित हो गया-दिल्ली में पानन्दि -१३८५ संभवतया एक छोटा सा उपपट्ट कुछ काल तक बना रहा।
शुभचन्द्र --१४५० इस मूलसंघ की जितनी भी परावलियां एवं गुर्वा- जिनचन्द्र-१५.७ इनका पूर्ण पटकाल 10. से वलियों उपलब्ध हैं वे सब अनेकों शाग्वापट्टों में से ही ७१तक । किसी न किसी पट्टपरंपरा की हैं और अधिकांशतः १६ वीं यह श्राश्चर्य की बात है कि इनमें से प्रथम पांच भटारक से १६ वी शताब्दी ईस्वी के बीच निर्मित हुई हैं। श्रतएव केवल छः वर्ष में ही समाप्त हो जाते हैं जबकि उनसे आगे उनमें प्राप्त उक्त शाखा पट्टों के पट्टक्रम. गुरनाम प्रादि के छः भट्टारकों का काल पर ३०० वर्ष है। ऐसा होना नथा जहाँ कहीं पटकाल भी सूचित करदिये गये हैं, वे भी नितान्न असंभव तो नहीं है, तथापि ये तिथियां कुछ मन्दिग्ध प्रायः विश्वसनीय प्रतीत होने हैं। किन्तु जितना जितना प्रतीत होती हैं। इन गुरुओं का समय निर्णय उत्तरभारत के पीछे की ओर चलते हैं ये मन्दिग्ध हान जाते हैं। मध्यकालीन इतिहास के लिये परमावश्यक है । अतएव इनमें मुल पट्टावली के अनुसार भद्रबाह द्वि० से लेकर
से प्रत्येक के समय को उनके स्वयं के सम्बन्ध में उपलब्ध अभयकीति पर्यन्त ७७ गुरुश्री का काल १२६५ वर्ष माहित्यिक एवं शिलालस्त्रीय निर्देशों एवं ऐतिहासिक अनुजिसके अनुसार धौमत पटकाल लगभग १३ वर्ष माना है श्रुतियों आदि के संदर्भ में जांच करके निर्णीत करना उचित इन गुरुत्रों में से अधिकांश की ऐतिहासिकता, पर होगा और इसके लिये यह सुविधाजनक होगा कि अन्तिम एवं समयादि के सम्बंध में पट्टावलियों को छोड़कर गुरु, जिनचन्द, से प्रारंभ करके पीछे की ओर चला जाय । प्रायः कोई अन्य प्राधार नहीं है। किन्न ७ गुरु- भट्टारक जिनचन्द्र अपने समय के ही नहीं वरन अजमेर घट स्थापक वसन्तीति से लेकर ८७ वेंगुर सम्पूर्ण इतिहास काल के संभवतया सबसे बो जिनबिंब जिनघन्द्र पर्यन्त उत्तरोत्तर ऐसे ऐतिहासिक निर्देश तथा . - . . -- .
२. इनका नाम उपरोक्त पट्टावली में नहीं है किंतु १. देखिये जैनसिद्धान्त भाकर, मा.१. कि ७१. इस संघ की प्रायः अन्य सब पटवलियों में पाया
जाता है। देखिए वही, पृ. १८४
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