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अनेकान्त
काल तक प्रचलित रही है। जटाओं के अंकन के इस रहस्य तथा देवी चक्रे श्बरी का स्वरूपका उल्लेख प्रादिपुराण में इस प्रकार वर्णित है- भर्माभाद्य करद्वयाल कुलिशा, चकांक हस्ताष्टका, चिरं तपस्यतो यस्प जटा मूनि बभूस्तराम् ।।
सव्या सव्य शयोल्लसत्फलवरा, यन्मूतिरास्तेम्बजे । ध्यानाग्नि दग्ध कर्मेन्ध निर्मद धूम शिखा इवा ताक्ष्ये वा सह चक्र युग्म रुचक त्यागैश्चतुभिः करैः,
आदिपुराण पर्व १. श्लोक है. पंचेष्वास शतोन्नत प्रभुनतां, चक्रेश्वरी तां यजे ॥१५६ बड़े बाबा के नाम से प्रख्यात इस प्रतिमा में जटाओं
वर्णन किया गया है और इसी वर्णन के अनुरूप इस का अस्तित्व हमें ज्ञात रहा हो चाहे नहीं, परन्तु लोक
मूर्ति के प्रासन में सींग सहित गोमुख यक्ष तथा नर यक्ष
पर ग्रामीन चक्र युक्र देवी चक्रेश्वरी की एक हाथ अवराति की परम्परा का पहरुवा, ग्रामीण गीतकार बहुत प्राचीन काल से इस तथ्य से अवगत रहा है क्षेत्र पर छोटे
गाहना की मूर्तियां अंकित हैं। बालकों का मुन्डन संस्कार कराने की प्रथा है और उस
गोमुख के दोनों सींग और अपेक्षाकृत लम्बी आंखें अवसर पर यह गीत न जाने कब से कुण्डल पूर में गाया
तथा कान एवं मुकुट पर धर्मचक्र दृष्टव्य हैं । गले में माला जाता रहा है
तथा यज्ञोपवीत और दाहिने हाथ में मातु लिंग एवं वाएं में
फरम अंकित हैं । इसी प्रकार ललितासनस्थ चक्रेश्वरी की कुण्डलपुर बाबा जटाधारी,
चार भुजाओं में से ऊपर की दो भुजाओं में चक्र तथा नीचे मौड़ा की चुटइया मुड़ा डारी॥
शंख एवं वरद मुद्रा है। शरीर पर वक्षहार, मणि माल, इसके अतिरिक्र स्वयं "बड़े बाबा" "महादेव" मोहन माला, कंगन, कुण्डल, मुकुट श्रादि अलंकार यथा 'यगादि देव आदि नाम भी श्रादिनाथ के लिए ही प्रयुक्र स्थान शोभित हैं। होते हैं।
इन्हीं श्राधारों के बल पर मैं इस अद्भुत जिन बिम्ब १. मेरी इस धारणा का अंतिम और महत्वपूर्ण
को भगवान आदिनाथ के नाम से स्मरण कर रहा हूँ। भाधार इस मूर्ति के प्रासन के पार्श्व में प्रादिनाथ के यक्ष पावस्थ चामरधारी सौधर्म एवं ऐशान इन्द्रों एवं पुष्पमाल्य गोमुख और यक्षी चक्रेश्वरी का सहज, सायुध अंकन है।
सहित उड़ते हुए विद्याधरों की अंकन शैली एवं प्रतिमा की पंडित प्रवर माशाधर जी के अनुसार गोमुख यक्ष का स्वरूप
कला के आधार पर इसका निर्माण काल भी मेरे अनुमान सव्येतरो लकरदीप्र परश्वधाक्ष सूत्रं, से उत्तर गुप्त और पूर्व मध्य काल (छठवीं से आठवीं तथाधरकरांकफलेष्ट दानम् ।
शताब्दि) के बीच का ज्ञात होता है। कोई पुराविद् विद्वान प्राग्गोमुखं, वृष मुखं वृषगं वृषांक,
यदि इस पर शोध पूर्वक सप्रमाण कोई मत व्यक्त करेंगे तो भक्त यजे कनकभं वृषचक शीर्षम् ॥१२६ मैं उनका प्राभार मानूंगा।
*** सम्बोधक-पद
किशन चन्द यो संसार निहार जिया परलोक सुधारो।। टेक ।। तू पोषत यह नित छीजै, नाना जतन विच.रो। जो पुद्गल कू अपणो जाएं, सो तन नाहिं तिहागे । जिया० ।।१।। मात तात सुत भ्रात सुहृद जन, सो सब जागो न्यारो। मरती विरियां संग न चाल, पाप पुन्य सग सारो।। जिया० ।।२।। जो चेत सतसंगति पाई तजि मिथ्यामत खारो। 'चद किशन' बुध इम भाषत है प्रातम रूप निहागे ।। जिया० ।। ३ ।।