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_स्व. श्री जयभगवानजी जैन एडवोकेट पानीपत की अन्तिम भावना
(जो अपने स्वर्गारोहण समय में एक दिन पूर्व ३ अप्रैल १६६४ को
उनके द्वारा रचित निम्न कविता से अभिव्यक्त होती है।)
समर्पण
पंच भून भूतों, को अपित । वायु वायु को रज रज अर्पित ।।
अग्नि अग्नि को जल जल अर्पित । भूमि खण्ड हो भूमि समर्पित ॥१॥ निज जन पग्जिन तन पत्नी सुत । स्वार्थ बुद्धि से है मम कल्पित ॥
जरा मृत्यु से ये पावरणित । जरा मृत्यु को हों ये अर्पित ॥२॥ इनमें कुछ भी सार 'ग्रह' ना । ये सब पर है पर को अर्पित ।।
अहम् अस्मि मै, ब्रह्म अम्मि मै। अहम् अस्मि को होऊ अर्पित ॥३॥ काम क्रोध मद लोभ अकृति । पशु हृदयों की वृनि कनुपित ।।
मुझे न वाञ्छित अशुचि अधम ये । हो पशुओं को ही ये अर्पित ।।४।। मुग सुन्दरी मुग्पति अर्पित । धन वैभव हो धनपति अर्पित ॥
दान दक्षिणा द्विज जन अपित । गज माज राजन को अर्पित ।।५। जहाँ जहां ये तृष्णा तर्पित । वहां वहां सर्वम्व समर्पित ॥
शिव सुन्दर प्रिय शान्त 'ग्रह' मै । शिव सुन्दर को हूँ मै अर्पित ॥६।। मित्र वरुण तू सविता यम तू । सव भुवनो का धाम परम तू ।।
विश्व-मैत्री उत्सव उत्सुक मै। विश्व-मैत्री को हूँ मै अर्पित ।।७।। परमेष्ठी परमार्थ पुरुप त । परम परम हो इष्ट मुझे है ॥
विनति यही नैघेघ यही है। परम परम को हूँ मै अर्पित ।।८।।
प्रेषक-रूपचन्द गागीय जैन पानीपत
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