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प्रोम प्रहम्
अनकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष १७ किरण, २
वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६.
वीर निर्धारण स० २४६०, वि० सं० २०२१
जून सन् १९६४
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जिनवर स्तवनम् दिट्र तुमम्मि जिणवर सहलीहूआई मझ णयणाई । चित्त गत्त च लहुँ अमिएगण व सिंचियं जायं ॥ दिठ्ठ तुमम्मि जिणावर दिहिहगसेममाह तिमिरेण । नह गळं जइ दिट्ठ जट्ठियं तं मए तच्चं ॥ दिट्ठ तुम म्मि जिणवर परमाणंदेण पूरियं हिययं । मझ तहा जह मगगणे मोक्वं पिव पत्तमप्पाणं ॥
-श्री पद्मनंद्याचार्य
अर्थ :-हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर मेरे नेत्र सफल हो गए तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृत से सींचे गए के समान शान्त हो गये हैं ॥१॥ हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर दर्शन में बाधा पहुंचाने बाला समस्त मोह ( दर्शन मोह) रूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथावस्थित तत्त्व को देख लिया है-सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है ॥२॥ हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर मेरा अन्तः करण ऐसे उत्कृष्ट प्रानन्द से परिपूर्ण हो गया है .कि जिससे मैं अपने को मूक्ति को प्राप्त हुआ ही समझता हूं ॥३॥