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शान्ति और सौम्यता का तीर्थ-कुण्डलपुर
स्वामी का निर्वाण स्थल यह क्षेत्र नहीं है । इस प्रकार एक
मुद्गप्रभो मूर्धनि धर्मचक्रम्, मत का समाधान हो जाता है, परन्तु प्रतिमा के मही बिभ्रत्फलम् वाम करेथ यच्छन् । परिचय की ओर कोई प्रयास विद्वानों द्वारा नहीं किया
वरं करिस्थो हरिकेतु भक्तो, गया सिहासन के सिंह, पार्श्व स्थित पारसनाथ की खड्गासन
मातंग यक्षो गत दृष्टिमिष्टया ॥ १५२ मुनियां एवं शिलालेख में महावीर के नाम से इस मूर्ति का इमीग्रंथ में देवी सिद्धाविनी का स्वरूप इस प्रकार उल्लेख ये सब श्राधार बड़े बाबा को सन्मति की प्रतिमा मानने वालों को इतने निश्चित लगे कि इस प्रकार के शोध
सिद्धिायिका सप्त करोड्रितांग, की आवश्यकता ही नहीं समझी गई।
जिनाश्रयाँ पुस्तक दान हस्तम् । अपनी पिछली कुन्डल पुर यात्रा में मैंने जिज्ञासा वश श्रितां सुभद्रासनमत्र यज्ञे, शोध की दृष्टि से इस अतिशय मनोज्ञ मूर्ति का निरीक्षण
हेमद्युति सिंहति यजेहम् ॥१७८ ॥ किया तब कुछ नवीन नथ्य सामने आए हैं, जिनके आधार चूकि इस वर्णन से युक्र शासन बक्षा और यही का पर यह मूर्ति निर्विवाद ही प्रथम तीर्थ कर, युगादि देव, अंकन इस प्रतिमा के परिकर में नहीं है इसलिए भी वह भगवान श्रादि नाथ की प्रतिमा निर्धारित होती है। इस मूर्ति भगवान महावीर की नहीं मानी जा सकती। श्री रूपसम्बन्ध में मेरे प्राधार इस प्रकार हैं
चंद रतन' ने अपने उक्त लेख में एक और प्राधार हम ३. प्रतिमा केवल चौबीस तीर्थकरों की ही बनाए जानेकी प्रकार लिया है। परम्परा रही है । भगवान श्रादिनाथ के तीर्थ में, उनसे भी मंदिर के शीर्ष मुकुट भाल पर अवस्थित पाषाण कृत पूर्व, कठोर तपश्चरण करके बाहुबली स्वामी ने मुक्ति लाभ सिंह अंकित है जो दर्शकों को दूर से ही सूचित करता है लिया था, इस कारण उनकी मूर्ति बनाने की परम्परा भी है कि यह जिनालय श्रीवद्धमान स्वामी का है" इस चली परन्तु यह एक अपवाद रहा । इन पच्चीस के सम्बन्ध में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि मंठिर के शीर्ष अतिरिक्त किसी भी मोनगामी की मूर्ति बनने की परम्परा भाग पर शुक नासा बिम्ब की स्थापना नागर और नाग या विधान का कहीं कोई उल्लेग्व या प्रमाण प्राप्त नहीं होता वषर शैली के मन्दिरों की विशिष्टता रही है तथा उनमें इस प्रकार श्राधर स्वामी का कल्पना निराधार सिद्ध होती सर्वत्र--न केवल जनों में-वन शैवों और वैष्णवों में भी है । दूसर ऋद्वि, मिन्द्धि और परिकर की उत्कृष्टता के अनु केवल सिंह की मूर्ति स्थापित करने की प्रणाली रही है। पान से भी मूलनायक की स्थिति में श्रीधरस्वामी को शुक नामा बिम्ब से मन्दिर के देवता का कोई संकेत नहीं विराजमान करके पार्श्व में पारसनाथ की प्रतिमाएं प्रतिष्टित मिलता। इसी प्राणाली के अंतर्गत इस मन्दिर के निर्माताकराना संगत नहीं कहा जा सकता ।
ओं ने वह सिंह यहां स्थापित किया होगा । मूर्ति का चिन्ह बड़े बाबा के प्रासन के चिन्ह मिहामन के प्रतीक उसके मामन में होता है । मन्दिर के शीर्ष पर उसके पाये है, वे मूर्ति के लांछन नहीं है, इसका प्रमाण तो उमा जाने का कोई प्रमाण कहीं प्राप्त नहीं हुवा।। कक्ष में विराजमान अन्य तीथंकरों की चिन्ह युक्त मूनियों इसी लेख में मातंग यक्ष को बन्दर मुग्याकृति लिखा में ऐसे ही सिंहासनों का अस्तित्व है, अत: इस प्राधार गया है पर ऐसा कोई शास्त्रोत प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया पर इसे सन्मति की मूर्ति मानना भी साकार मान्यता नहीं गया। प्राशन के इस यम को देख कर स्पष्ट ही जाना जा कही जा सकती।
सकता है कि प्रस्तुत अंकन वृषभ मुग्वाकृति गोमुख यक्ष का ३. वर्धमान की प्रतिमा के परिकर में उनके शासन
है मर्कट मुखाकृति नहीं है। देवता गजारुद मातङ्ग यक्ष और शामन देवी पिद्धायिका का ५. इस प्रतिमा के कांधे पर जटाओं का स्पष्ट अंकन अस्तित्त्व अवश्यंभावी है।' पं० प्रवर श्राशाधरजी के प्रतिष्ठा है। भगवान श्रादिनाथ के दीर्घ कालीन, दुर तपश्चरण सारोदार' के अनुसार मातङ्ग का स्वरूप इस प्रकार है:- के कारण उनकी प्रतिमा में जटाएं बनाने की परम्परा मध्य