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पूर्ववृत्त
अहिंसा एक मंथर गति का पौधा है जो द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के संयोग से कुंद और मुकुंद होता है। इतिहास के क्षितिज पर इसके आरोह-अवरोह के पदचिह्न अंकित है। अहिंसा धरती का व्यास है जिसका आदि-मध्य एवं अंतिम छोर पाना असंभव है। इसके ज्ञाता-ध्याता महापुरुषों ने इसके स्वर एवं शौर्य को समय-समय पर बुलंद किया और इसे प्राणोत्सर्ग के बदले भी प्राणवान् बनाये रखा।
__ अहिंसा के विकासात्मक स्वरूप में अहिंसा के विकास का चित्रण यह धोतित करता है कि ग्रंथों-महाग्रंथों में इसकी कैसी भूमिका रही है? महापुरुषों ने इसे अपनाकर किस रूप में, कैसे प्राणवान् बनाया है? इत्यादि जिज्ञासाओं का समीचीन समाधान प्रस्तत लेखन में खोजा जा सकता है। अहिंसा का विशद् विवेचन आगमों में गुंफित है जिसकी एक झलक पाठक के लिए सुलभ है। एक ओर वेद-उपनिषद् आदि आर्य ग्रंथों में अहिंसा को स्वीकृति मिली तो दूसरी ओर ऐतिहासिक थातिनुमा रचनाएँ-महाभारत, गीतादि में भी इसको स्थान मिला है जिसकी चर्चा प्रसंगतः की गयी है।
विभिन्न रूपों में, भिन्न संबोधनों से अहिंसा को जो प्रस्तुति मिली उसे विमर्श का विषय बनाया गया है। विशेष रूप से अहिंसा के विकास का स्रोत महात्मागांधी के समय में एक नया प्रवाहरूप धारण कर भारत की आजादी का अजेय-शस्त्र बना और पूरी दुनिया में उसकी चूत फैली। आधुनिक सुकरात-विवेकानंद की ख्याति प्राप्त आचार्य महाप्रज्ञ ने संपूर्ण भारत भ्रमण के दौरान व्यापक जन संपर्क के आधार पर न केवल अहिंसा विकास की बात कही अपितु हिंसा के मूल कारणों की खोज की। तथ्यों के आधार पर उन्होंने बतलाया कि गरीबी और रोटी का अभाव आदमी को हिंसा के लिए प्रेरित करता है। नक्सलवाद, आतंकवाद, उग्रवाद इसी गरीबी और शोषण की आग से निकली चिंगारियाँ हैं जो स्वतंत्र भारत के कई राज्यों को अपनी लपेट में ले रही हैं। समीक्षण पूर्वक उन्होंने प्रयोग और प्रशिक्षण प्रक्रिया को प्रस्तुत कर, अहिंसा के विकास की नई संभावनाओं को उजागर किया है।
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