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द्वितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन
सोरठा-सो सुनि नोके बोल, वा संजमिनी के कहे ।
भी निज घरम अगेल, जिमि गज अंकुस के लगे ॥ अर्ष-संयमिनी राजुल के इन सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी शान्त हो जाता है ।
बोहा- ज्ञानवंत या विधि करत, बुध नु विचन्छन होय ।
विलग होय भव-भोग सों, जा विधि नर-वर सोय ॥ अर्थ-संबुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं। वे भोगों से वैसे ही विनिवृत्त हो जाते हैं जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुए । मैं ऐसा कहता हूँ।