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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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साधुओं के बीच में आचार्य शोभता है। जिस प्रकार मेघ-मुक्त निर्मल आकाश में नक्षत्र और तारागण से परिवृत्त शरद् चन्द्र शोभा पाता है, उसी प्रकार भिक्षुओं के बीच में गणी शोभा पाता है ।
(१६)
कवित
ज्ञान आदि रत्ननि की खान ही महान जान, महारिसि आचारज उत्तम उपाधिये । ध्यान हू तं श्रुतके अभ्यास हू तं शील हू लें, बुद्धिहू विशुद्ध करि वाकी सेव साधिये । जासों बढ़ि उत्तम नहीं है कोऊ काहू बल, ऐसी मुकती को लंनों चाहे जो अवाधिये । कामना घर है जी पे धर्म को अराधवे की, उनको प्रसन्न कीजे, उनको अराधिये ॥
अर्थ - अनुत्तर ज्ञान आदि गुणों की संप्राप्ति की इच्छा रखने वाला मुनि कर्मनिर्जरा का अर्थी होकर समाधियोग, श्रुत, शील और बुद्धि के महान आकर (खानि) मोक्ष की एषणा करनेवाले आचार्य की आराधना करे और उन्हें प्रसन्न करे ।
छंद मुक्तादाम
(१७)
सुभाषित कों सुनिके मतिवान, अचारज सेव अनालस ठान । अनेकनि नेक गुनानि अराध, अनुसर पावत मोक्ष अबाध ॥
अर्थ — मेधावी मुनि इन सुभाषितों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य
की शुश्रूषा करे । इस प्रकार अनेक गुणों की आराधना कर अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है ।
ऐसा मैं कहता हूँ |
नवम विनय-समाधि अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त |