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दसम सभिक्षु अध्ययन
(१०)
चौपाई - कलह-कारिनी बात न कहई, कोप न करें, शान्त जो रहई ।
अचल जोग संजम में जोरं, इन्द्रिय उद्धत होय न जाके, रहत भाव उपशान्तनि जोई,
उचित बातकों कबहुँ न तोरें ॥ मन में शान्ति वसे है ताके । इन्द्रिय-जयो भिक्षु है सोई ॥
अर्थ - जो कलह-कारी कथा नहीं करता, जो कुपित नहीं होता, जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, संयम में ध्रुवयोगी है, उपशान्त है, और जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता वह भिक्षु है ।
(११)
कवित्त
इंद्रिनि के कांटे ऐसे सहत दुखद जोग, कटुक कठोर कुवचन हू सहावे हैं, कोऊ धमका औ डरावं तऊ सहे ताहि, करं मारपीट तोऊ नाम न लहावं है । भैरव आविक मय-कारक सबद घोर, अट्टहास आदि त्रासवास हू गहाव है, सुख अरु दुःख दोऊ सहत समान भाव इच्छुक मुकति के ते मिक्षक कहावें है ।
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अर्थ - जो श्रोत्रादि इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले कठोर वचन, प्रहार और ताड़ना तर्जनादि को समभावपूर्वक सहन करता है, जो अत्यन्त भय को उत्पन्न करने वाले भूत- बैताल के शब्दों को, उनके अट्टहासों को सहन करता है। तथा सुख और दुख को समभाव पूर्वक सहन करता है, वह भिक्षु है ।
१ (२)
छन्द -- प्रतिमा गहि के मसान में भैरव-भीति लखे डरं न जोई । नित लीन तप औ गुननिमें, देह ह को नहिं चाह भिक्षु सोई ।।
आकांक्षा नहीं करता है, वह भिक्षु है ।
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अर्थ जो श्मशान में प्रतिमायोग को ग्रहण कर अत्यन्त भयानक दृश्यों को देखकर नहीं डरता, जो नाना प्रकार के मूल गुणों और उत्तरगुणों में तथा तपों में निरत रहता है और जो मरणान्तक भय आ जाने पर भी शरीर के बचाने की
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