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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
(७) संजम तजि जो घर में जाय, मानों नरक-निवास कराय । (८) गहवासी के दुर्लभ सोय, संजम घरम-फरसना होय ॥ (९) गेही के अनेक आतंक, जिनसे मरने में नहि संक । (१०) गेही के संकल्प अनेक, रहे न जिससे कछ विवेक । (११) दलेश-युक्त है गहावास, क्लेश-रहित है मोक्ष-निवास । (१२) है निवासघर बन्धन रूप, मुनि-पदवी है मोका-स्वरूप ।। (१३) है सावध गह-आवास, औ निरवध साघु-पद-वास । (१४) हैं अति तुच्छ जगत के भोग, करें सदा ही पाप-संजोग ।। (१५) सबके पुण्य-पाप हैं भिन्न, कोई सुखी, कोई दुख-खिन्न । (१६) यह अनित्य जन-जीवन जान, चल कुशाप्र-जल-बिन्दु समान ।। (१७) मैंने इससे पूर्व अनेक, किये पाप हैं बिना विवेक । (१८) हैं विकराल पूर्व कृत पाप, देते जो अति हैं सन्ताप ।।
भोग विनु मुकतो नहिं होय, भोगते ही मुफती होय ।
तातें तप से कर्म खिपाय, ज्ञानी जन सट शिवपद पाय ।। अर्थ-वे अठारह स्थान इस प्रकार हैं(१) हे आत्मन्, इस दु.षम काल का जीवन ही दु:खमय है। (२) इस दुःपम काल में गहस्थ लोगों के काम-भोग तुच्छ और अल्पकालीन हैं।
(३) और इस दुःषम काल के मनुष्य प्रायः बड़े कपटी और दूसरों को ठगने वाले होते हैं।
(४) मुझे जो दु.ख उत्पन्न हुआ है वह चिरकाल तक नहीं रहेगा।
(५) संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में जाने वालों को नीच से भी नीच जनों की सेवा और खुशामद करनी पड़ती है। (यह बात अपमानकारक है।)
(E) संयम को छोड़कर गहस्थाश्रम में जानेवालों को वमन अर्थात् त्याग किये हुए पदार्थों का पुनः सेवन करना पड़ता है। (यह घणित कार्य है।)
(७) संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में जाना मानो नरकगति में जाने की तैयारी करना है।
(८) हे आत्मन्, गृह-वास के मध्य में वसने वाले गृहस्यों के लिए धर्म का गलन करना निश्चय ही बहुत दुर्लभ है । (कठिन है ।।
(९) यह शरीर रोगों का घर है, जो रोग जीव के मरण के लिए कारण हैं।
(१०) गृहस्थाश्रम में इष्ट वियोग और अनिष्ट • संयोग से सदा संकल्प. विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, वे भी जीव के घात के लिए कारण होते हैं
(११, गृहस्थाश्रम क्लेश-युक्त है और संयम-पर्याय क्लेश-रहित है।