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उपसहार
चौपाई- स्वामि सुधर्मा गति जे अहई, निज सुशिष्य बंबू को कहई । जो कछु सुन्यो वीर जिन पाहीं, सो हों कहीं और कछु माहीं।
शिखरिणी अहिंसा सिद्धान्तं यदि सुजन कान्तं भवि-हितं, गुणानामागारं सुखब मतिसारं हवि घृतम् । मुनीनामाचारं विमलमतिचार सुचरितं, ततो बोषातीतं सुगतिरमणी तं बरयति ।
प्रन्थ-परिचय दोहा- बरावकालिक सूत्र में, आल्यो मुनि-आचार ।
मांति-मांति मासित कियो, संजति को व्यवहार ॥१॥ 'सज्जमव' गनिवर सुघर, निज सुत 'मनिक' निहार । अलप आयु षटमास लखि, आगम निरति अपार ॥२॥ सूत्र अन्य को मथि करि, संत - पंच • नवनीत । काढ़ि पढ़ायो सुतनि कों, रह्यो सुगहि मुनि-रीत ॥३॥ मन ही राख्यो भाव सब, पिता पूत को प्यार । जब वा सुतने तनु तज्यो, बही नयन - जल - धार ॥४॥ तब सब सावुनि ने कहा, 'नाय, कहा यह बात' ? तब गनिनें परगट कही, हुतो यह तनु - जात ॥५॥ तब सानि विनती करी, 'नाथ, कहो कि न आप । रखते उनको लाड़ से, यह हम-मन अति ताप' ॥६॥ तब गनिवर ऐसे कही, 'हम जो करत प्रकास । होतो तुमरे प्यार ते, वाको काज विनास' ॥७॥
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