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प्रथम रतिवाक्या चूलिका चौपाई- जो प्रवजित हो मोहाधीन, तजन चहै संजम नर दीन ।
संजम-तजन पूर्व मुनिराय, निम्नलिखित थानक मन लाय ।। इनके चित संबर होय, गिरता साधु तुरत थिर होय । जैसे गज अंकुश-वश होय, या लगाम-वस वाजी होय ।। ज्यों ध्वज-वश नौका थिर होय, त्योंही डिगता मुनि थिर होय । तात आत्मन, भाव लगाय, इनको सुमरं नित चित्त लाय ।।
मर्ष-भो मुमुक्षओ, दीक्षा लेने के बाद शारीरिक या मानसिक दुःख उत्पन्न होने से संयम में अरति भाव उत्पन्न हो जाय, अर्थात संयम-मार्ग में चित्त न लगे,
और संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में वापिस जाने की इच्छा जागृत हो जाय तो संयम छोड़ने से पूर्व निम्नलिखित अठारह स्थानों का भली-भाँति विचार करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार लगाम से चंचल घोड़ा वश में आ जाता है, अंकुश से मन्दोमत्त हाथी वश में आ जाता है और समुद्र की उत्ताल तरंगों से गोते खाती हुई नाव जैसे पतवार से स्थिर हो जाती है, उसी प्रकार वक्ष्यमाण अठारह स्थानों के विचार करने पर चंचल और डांवाडोल साधु का चित्त भी संयम में पुन: स्थिर हो जाता है।
वे अठारह स्थान इस प्रकार हैंचौपाई- (१) अहो विकट यह दूसम काल, कठिनाई से जीविका चाले ।
(२) गृहीजनों के काम जु भोग, अलपसार, लघुकाल संजोग । (३) अबकं मनुज कुटिल अति घनें, माया-मूर्छा में वे सनें । (४) यह मेरा दुख चिर थिर नाहीं, अवधि पूर्ण भये यह तो जाही। (५) संजम तजि जो घर में जाय, नोच जननि की सेव कराय । (६) तजि मुनि पद जो घर में जाय, वमन किये को सोपी जाय ।
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