Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Mishrimalmuni
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 308
________________ द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका २८५ (७) चौपाई- मय-मांस-स्यागी मुनिराय, विकृति-रहित भोजन चित लाय । पुनि पुनि कायोत्सर्ग करेय, ध्यान, शास्त्र-स्वाध्याय करेय ॥ अर्थ-- मद्य-मांस का अभोजी साधु बार-बार विकृतियों (दूध, दही आदि) को न खाये, मात्सर्य-रहित रहे, बार-बार कायोत्सर्ग करे तथा स्वाध्याय और ध्यानयोग में प्रयत्नशील रहे। चौपाई- विचरत साधु न शपथ कराय, गृहिजन को ऐसा बतलाय । मासन-शयन न पर को दोजे, जब लौटू तब मुझको दोजे । प्राम नगर कुल देश-मंझार, ममता भाव न रखे लगार । नि:स्पृह भाव रख करे विहार, वीतरागता हिय में धार ॥ अर्ष- साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलावे कि यह शयन, आसय, उपाश्रम आदि जब मैं लौटकर आऊं, तब मुझे ही देना (और को मत देना) । इसी प्रकार भक्तपान भी मुझे ही देना, ऐसी प्रतिज्ञा भी न करावे । ग्राम, कुल, नगर या देश में कहीं भी ममता-भाव न रखे। चोपाई- गेही का अभिवादन वन्दन, वैयावृत्य करे ना पूजन । पलेश-रहित सन्तों के संग, विधरं ज्यों व्रत रहे अभंग ।। अर्थ-साधु गृहस्थ का वैयावृत्य न करे, उसका अभिवादन, (स्वागत), वन्दन और पूजन न करे । मुनि को सदा संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहना चाहिए, जिससे चारित्र की हानि न होवे। (१०) चौपाई- बहुगुणि, सम-गुणि नाहिं मिलाय, तो एकाको साघु रहाय । विचरं पापों से रहि दूर, संयम-रत रहकर भर-पूर ॥ अर्ष-यदि कदाचित अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुणवााल

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