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दशम सभिक्ष अध्ययन
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(१६) कवित्तमेरी जाति ऊंची और नीचे सब मोतें केते, ऐसो 'जातिमद' तामें मत आँन रहिये, त्यों ही 'मैं सुरूपवारों' ऐसो रूप-मद तज, प्रापति को मान 'लाम-मद' ह गहिये । मेरे अतमान बड़ो, ऐसो 'शु तमद' तर्ज, याही विधि सारे मद त्याग किये चहिये, इनकों न आन कर, धरत धरम ध्यान धर्म सों करत रति "भिक्षक' सो कहिये।
___ अर्थ- जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो श्रुत का मद नहीं करता, जो सब मदों का त्याग कर धर्मध्यान में रत रहता है, वह भिक्षु है ।
(२०) कवित्तजाके आचरन कीने आतम अमल होत, ऐसो आर्य-उपदेश आप नित करत है, पाप-पंथ टारि आप घरम में थित भये, औरनि को थापन की वाट ह बहत है। जगत निकसि के जोगी को सरूप लोनो, भोगी से कुसोलभाव फर ना गहत है, हास औ कुतूहल को करत न महामुनि, ऐसो ढंग जाको ताको 'मिन क' कहत है ।।
___ अर्थ ---जो महामुनि आर्यपद (धर्मपद) का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थित करता है, जो प्रवजित होकर कुशीललिंग को छोड़ देता है और जो दूसरों को हंसाने के लिए कौतूहल-पूर्ण चेष्टा नहीं करता, वह भिक्ष है।
कवित्तसासतो न भासत, कुवासना को रास महा, त्रास को विनास, देह-वास दुखदाई है, ताको नित तजत, भजत हित आतमा को, सजत सकल भय-हरन उपाई है। जनम-निकंदन के कंबन के बंधन को, करिके निकंदन अनंद उमगाई है, भिक्षु ऐसी पावन परम गति पावत है, जाबत जहाँ सो फेर आवत न जाई है।
अर्थ .. अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला भिक्ष इस अशुचि और अशाश्वत देह-वास को सदा के लिए त्याग देता है और वह जन्ममरण के बन्धन को छेदकर जहां से फिर आगमन नहीं है, ऐसी अपुनरागम गति अर्थात् सिद्ध गति को प्राप्त होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
दशम सभिक्ष अध्ययन समाप्त ।