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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
२६६ (१२) गृहस्थाश्रम बन्धनरूप है और संयम-पर्याय मोक्षरूप है अर्थात् कर्मबन्धनों से छुड़ानेवाली है।
(१३) गृहावास सावध (पाप)-रूप है और संयम-पर्याय निरवद्य (निष्पाप) है। (१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुत साधारण (तुच्छ) हैं।
(१५) प्रत्येक प्राणी के पुण्य-पाप अलग-अलग हैं, अर्थात् सभी जीव अपनेअपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगते हैं।
(१६) हे आत्मन्, मनुष्यों का जीवन कुशा के अग्रभाग पर ठहरे हुए जल की बिन्दु के समान अति चंचल है अर्थात् क्षण-भगुर है ।
(१७) हे आत्मन्, निश्चय ही तूने बहुत पापकर्म किये हैं, जिनके उदय से तेरे मन में पवित्र संयम को त्यागने के भाव उत्पन्न हो रहे हैं।
(१८) और हे आत्मन , खोटे भावों से तथा मिथ्यात्व आदि से उपार्जन किये हुए पूर्वकाल के पाप-कमों का फल भोगने के बाद ही उनसे मोक्ष होगा, अर्थात् उनसे छूट सकेगा । कर्मों का फल भोगे बिना मोक्ष संभव नहीं है अथवा तप के द्वारा कर्मों का क्षय करने पर ही मोक्ष होता है। (अतः संयम में स्थिर रहो) यह अठारवां पद है।
इस विषय में श्लोक इस प्रकार हैं --.
चौपाई- जब तजं धर्म कोई अजान, मोगों के कारण गतिवान ।
तब नहीं उसे है कछू ज्ञान, कैसा होगा भावी विधान ।
अर्थ-जब कोई अनार्य (अज्ञानी) पुरुष भोगों के कारण संयम-धर्म को छोड़ता है, तब काम-भोगों में भूच्छित (आसक्त) हुआ वह अज्ञानी अपने आगामी काल का जरा भी विचार नहीं करता है कि भविष्य में मुझे इस पतन से कैसे और कौन से दुःख भोगने पड़ेंगे।
चौपाइ- जिमि च्युत इन्द्र स्वर्ग त होय, सुमरि पूर्व वैभव दुखि होय ।
तिम संजम व्युत जति जब होय, पश्चात्ताप कर है सोय ।।
अर्थ-जिस प्रकार स्वर्गलोक से च्यवकर पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाला इन्द्र अपनी पूर्व ऋद्धि को याद कर पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार संयम से पतित हुआ साधु सर्व धर्मों से भ्रष्ट हो जाता है और तब वह पीछे पश्चात्ताप करता है।