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प्रथम रतिवाक्या चूलिका
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अर्थ- संयम में रत रहने वाले महर्षियों के लित्र संयम-पर्याय देवलोक के समान उत्तम सुखदायक है, ऐसा जानकर तथा संयम में अरुचि रखने वालों को वही संयम नरक के घोर दुःखों ने समान दुःखदायी प्रतीत होता है, ऐसा जानकर बुद्धिमाद साधु को संयममार्ग में ही रमण करना चाहिए ।
(१२)
चौपाई - यज्ञ अगनि जब ही बुझ जाय, कोई न उसको नमन कराय : डा निकल नाग की जांय, तब कोई भी भय ना खाय ॥ त्यों तप-तेज-रहित मुनि होय, जब संजम च्युत होवे सोय । पापी जन भो निन्दा करें, सबहि ठौर अपमान कु धरै ॥ अर्थ - यज्ञ की अग्नि जब तक जलती है तब तक उसे पूज्य समझकर अग्निहोत्री ब्राह्मण उसे प्रणाम करता है, किन्तु जब वह बुझकर तेज रहित हो जाती है, तब उसे कोई नमस्कार नहीं करता, प्रत्युत उसकी राख को उठाकर बाहर फेंक देते हैं । तथा जब तक सांप के मुख में विषयुक्त दाढ़े रहती हैं, तब तक सब लोग उससे डरते हैं किन्तु दाढ़ें निकल जाने पर कोई उससे नहीं डरता । इसी प्रकार साधु जब तक संयम- स्थिर एवं तप के तेज से संयुक्त रहता है, तब तक सब उसका विनयसम्मान करते हैं । किन्तु जब वह संयम से भ्रष्ट होकर अयोग्य आचरण करने लगता है, तब हीनाचारी लोग भी उसका तिरस्कार करने लगते हैं ।
(१३)
चोपाई - संजमच्युत की निन्दा होय, अपयश और अकीरति होय । हो बदनामी इस हो लोक, दुरगति पाव सो परलोक ॥। अर्थ- संयमधमं से पतित अधर्म का सेवन करने वाला, ग्रहण किये हुए व्रतों को खंडित करने वाला साधु इस लोक में अधर्म, अपयश और अपकीति को प्राप्त होता है और साधारण लोगों में भी बदनामी एवं तिरस्कार को प्राप्त होता है तथा परलोक में नरकादि नीच गतियों में उत्पन्न होकर असह्य दु:ख भोगता है ।
(१४)
चौपाई - संजम पतित भोग को भोग, मूर्च्छा-वश करि पाप-संजोग । दुरगति में दुख भोगं जाय, समकित रतन न फेर लहाय ॥ अर्थ — तीव्र लालसा एवं गृद्धिभावपूर्वक भोगों को असंयम - पूर्ण निन्दनीय कार्यों का आचरण करके जब वह
भोगकर तथा बहुत से संयम भ्रष्ट साघु कालधर्म