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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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अरिल्ल
चविधि है आचारसमाधि भव्य हो, नहीं कीर्ति के अर्थ जु पालन कीजिए, हरिगीतकछंद - जिन-वचन में रत रहत जो,
परिपूर्ण आगम ज्ञान में, आचार -जनित समाधि सों
इहलोक - परलोक - निमित नहि पाल हो । जिन-भासित निज कार्जाह धारन कीजिये ॥
कटु कहत हूं कटु नहि कहै, अति चाह शिवपद को गहै । सवरित आतम कीन है, इंद्रिय-दमन में रमन करि सो करत सुकति अधीन है ।
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अर्थ आचारसमाधि चार प्रकार की है। जैसे - ( १ ) इहलोक के लाभ के लिए आचार को पालन नहीं करना चाहिए, (२) परलोक के लाभ के लिए आचार का पालन नहीं करना चाहिए, (३) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए भी आचार का पालन नहीं करना चाहिए किन्तु ( ४ ) अरहन्त भगवन्त के द्वारा उपदिष्ट हेतुओं के लिए अर्थात् संवर और निर्जरा के लिए आचार का पालन करे, इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी कारण से आचार का पालन साधु को नहीं करना चाहिए । यह चौथा पद है। इस विषय में जो श्लोक है, उसका अर्थ इस प्रकार है
जो जिनवचन में रत है, तुन-तुनाता नहीं है ( बकवास नहीं करता), सूत्रार्थ से परिपूर्ण है और अत्यन्त शिक्षार्थी है, वह आचारसमाधि के द्वारा संवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला साधु भाव सन्धक (मोक्ष को निकट करने वाला) होता है ।
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संजम लोन है ।
हरिगीत कछन्द - यहि भांति सों विनयादि चारि समाधि कों चित चीन है । भलि भाँति अपने आपकों जिन कियो अत्यन्त हित सुख- देनहारो करन जो कल्यान को । सो साधु पावत है सही, वह परम पद निरवान को ॥
अर्थ- - इस प्रकार जो चारों समाधियों को जानकर सुविशुद्ध और सुसमा - हित चित्त वाला होता है, वह अपने लिए विपुल हितकर और सुखकर मोक्ष को पाता है ।