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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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तसे ही या जग में जे नर-नार हैं, जिनके आतम में सत विनय विचार है । करते सुख के भोग सु देखे जावहीं, रिद्धि हु पावत, जगत बड़ो जस गावही॥
अर्थ-लोक में जो पुरुष या स्त्री सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं।
(१०-११) बोहा- तथा आत्म-अविनीत जे गुह्यक यक्ष रु देव ।
दोसत हैं दुख भोगते, करत पराई सेव ॥ तथा आत्म-सुविनीत जे, गुह्यक देव ह यक्ष ।
लिये रिति अरु जस महा, सुख भोगत प्रत्यक्ष ॥
अर्थ-जो देव, यक्ष और गुह्यक (भवनवासी देव) अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। किन्तु जो देव, यक्ष और गुह्यक सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान यश को पाकर सुख भोगते हुए देखे जाते हैं।
(१२) पडरी- जो जन आचारज उपाध्याय, सेवत सत वननि सों सुभाय ।
तिनको शिक्षा इम बढ़त जात, जल सींचत ज्यों तरुवर बढ़ात ॥ अर्थ-जो साधु आचार्य और उपाध्याय की सुश्रूषा और आज्ञा-पालन करते उनकी शिक्षा जल से सींचे गये वृक्ष के समान बढ़ती है।
(१३-१४) परी- अपने अथवा और के हेत, पटुपनो शिल्प-शिक्षा-समेत ।
इह लोक-अराधन भोग-माय, सोहौं जु गृही जन मन लगाय ॥ तिनमें लगि वे कोमल सरीर, सोलत-वेला पावं मु पोर । बध बन्ध तथा परिताप जोर, गुरुदेव भयानक अरु कठोर ।।
अर्ष-जो गृहस्थ अपने दूसरों के लिए इह लौकिक उपभोग के निमित्त शिल्प और कला-नैपुण्य सीखते हैं, वे शिल्प ग्रहण करने में लगे हुए पुरुप ललितेन्द्रिय (कोमल सुकुमार शरीर) होकर भी शिक्षा-काल में घोर बन्ध, वध और दारुण परिताप (सन्ताप) को प्राप्त होते हैं।