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नवम विनय-समाधि अध्ययन
२३७ (१२) बेतालछन्द- बाल हो या पुट हो, हो पुरुष अथवा नार,
प्रवजित हो या गृहस्थ हो, हो विज्ञ अथ बगवार । सुमिरन कराके कुकृत की लज्जित कर नहिं कोय,
मान अर जो क्रोध छोड़े पूज्य सो ही होय ॥ अर्थ-बालक या वृद्ध स्त्री या पुरुष, प्रबजित या गृहस्थ को दुश्चरित की याद दिलाकर जो लज्जित नहीं करता, उनकी निन्दा नहीं करता तथा जो गर्व और क्रोध का त्याग करता है, वही साधु पूज्य है।
(१३) बेतालछन्द- मान जिनको करत ते नित करत ताको मान,
सुता जसे जतन सों थिर करत उत्तम धान । मान-लायक गनिन कों माने तपस्वी जोय,
सत्य-रत इन्द्रिय-जयो जग-पूज्य सोई होय ॥ अर्थ- अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किये जाने पर जो शिष्यों का सदा सन्मान करते हैं, उन्हें श्रत ग्रहण के लिए प्रेरित करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को यत्न-पूर्वक योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में लगाते हैं, उन माननीय तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यव्रतनिरत आवार्य का जो सन्मान करता है, वही साधु पूज्य है।
(१४) बेतालछन्द- सुगुन रत्ननि के जु सागर, तिन गुरुनि के जोय,
सुखद वनि को स्त्रवण करि बुद्धिमान जु होय । पंच व्रत-रत, गुपति-त्रय-जत चरत मुनिवर जोय,
टारि चार कसाय कों, जग-पूज्य सो हो होय ॥ अर्थ-जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुजनों से सुभाषित सुनकर उनका आचरण करता है, पांच महाव्रतों में रत मन, वचन, काय से गुप्त रहता है तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों को दूर करता है वही साधु पूज्य है।