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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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वेतालछन्द- काहु के सनमुख पीठ पीछे करत निवा जो न,
पर-विरोधिनि तथा निश्चित भनत भाखा को न । तथा अप्रियकारिणी नहि कहत उकती कोय,
सदा ऐसो वरतई जन पूज्य सोई होय ॥ अर्थ-जो किसी के पीछे उसका अवर्णवाद नहीं करता, जो सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा को नहीं बोलता, वह पूज्य है।
(१०) वेतालछन्द- लोम में नहिं लगन जाकी, इन्द्रजाल-विहीन,
छल न धार, चारि टार, गहत वृत्ति अबीन । और सों नहिं जस करावत, आप करत न सोय,
कौतुकनि में रत नहीं जन, पूज्य सो हो होय ॥ अर्थ-जो रस-लोलुप नहीं होता, जो इन्द्र-जाल आदि के चमत्कार नहीं दिखाता, जो माया नहीं करता, जो चुगली नहीं खाता, जो दीनभाव से याचना नहीं करता, जो दूसरों से अपनी प्रशंसा नहीं करवाता, जो स्वयं भी अपनी प्रशंसा नहीं करता और जो कौतूहल नहीं करता, वही साधु पूज्य है ।
(११) वेतालछन्द- साषु होवत सद् गुननि तें, औगननि हि असाघु,
तजि असाधुपनो तथा प्रहि साधुके गुन साधु । आप ही सों आपको उपदेश-दाता जोय,
राग-द्वेष हु में रहै सम, पूज्य सो हो होय ॥ अर्थ- मनुष्य सद्गुणों से साधु होता है और असद्गुणों से असाधु होता है। इसलिए हे भिक्षो, साधुओं के गुणों को ग्रहण कर और असाधुओं के गुणों को छोड़ । आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग और द्वेष में समभाव रहता है, वही साधु पूज्य है।