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नवम विमय-समाधि अध्ययन
बेतालछन्द- होय जिनमें अधिक गुन, तिनमें विनय वरताय,
बालवयह प्रथम दीक्षा लई जिनने माय । नम्रता सों सदा वरतं सत्यभाषी सोय,
प्रनत भावनि सों रहै मुनि पूज्य सोई होय ॥ अर्थ-जो अल्पवयस्क होने पर भी दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हैं, उन पूजनीय साधुओं के प्रति जो विनय का प्रयोग करता है, जो नम्र व्यवहार करता है, जो सत्यवादी है, जो गुरु के समीप सदा रहता है और गुरु की आज्ञा का विनय-भक्ति से गलन करता है, वह साधु पूज्य है।
बेतालछन्द- कुल अजानहु तें सदा गहि अलप अलप महार,
उचित रीतिहु ते निवाहत राह संजम सार । जो न पाये तो नहीं कछु सोच मानत जोय,
पाय के वरन नहीं कछ, पूज्य सोही होय ॥ अर्थ-जो साधु जीवन-यापन के लिए अपना परिचय न देते हुए विशुद्ध सामुदायिक उञ्छ (भिक्षा) की सदा चर्या करता है, जो भिक्षा न मिलने पर खेद नहीं करता और मिलने पर अपनी श्लाघा (प्रशंसा) नहीं करता है, वह साधु पूज्य है।
(५) बेतालछन्द . सयन-आसन पान-मोजन, त्यों संचारक जोय,
बहुत पाये हू हिये जिहिं अलप इच्छा होय । या प्रकार जु आतमा में तोष मानत जोय,
मुल्य मानत जो संतोसहि, पूज्य मो ही होय ॥ अर्थ – संस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पान का अधिक लाभ होने पर भी जिसकी इच्छा अल्प होती है, जो आवश्यकता से अधिक नहीं लेता, जो इस प्रकार जिस किसी भी वस्तु से अपने आपको सन्तुष्ट कर लेता है और जो सन्तोषप्रधान जीवन में निरत है, वही साधु पूज्य है।