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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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(२०) द्रुतविलंबित
कषित एक तथा बहु वेर के, थित स्व-आसन शासन ना सुन'।
तनि तुरंतिहिं आसन धोर सो, विनय-संजुत वैनन को सुन ।
अर्थ-बुद्धिमान शिष्य गुरु के एक बार या बार-बार बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे. किन्तु आसन को छोड़कर शुश्रू पा के साथ उनके वचन को स्वीकार करे।
(२१) दूतविलंबित
समय को गुरु के उरभाव कों, तिम हि सेवन के उपचार हो ।
लखि भली विधि तासु उपावकों, करत काज तथा अनुसार ही ॥
अर्थ-ऋतुओं के काल को, हृदय के अभिप्राय को और आराधना की विधि को हेतुओं से जानकर उस-उस उपाय के द्वारा उस-उस प्रयोजन को पूरा करे ।
(२२)
दुतविलवित
विपति होत सदा अविनीत कों, तिमहिं संपति होत विनीत कों।
जिन लिये यह दोनऊ जान हैं. सु जन पावत सुंदर ज्ञान हैं ।।
अर्थ-अविनीति शिष्य को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत शिष्य को संपत्ति प्राप्त होता है, ये दोनों बातें जिसने जान ली हैं, वही शिष्य शिक्षा को प्राप्त होता है।
कवित्तचंड है सुभाव जाको क्रोध को अधिकता तें, रिद्धि को बड़ाई जाको बुद्धि में समानी है, चारी को करया खोटो साहस धरैया तथा गुरु के वचन नहिं मानं अभिमानी है। धर्म सों अजान त्यों न विनय सुजान सोई वजित विभाग, मति स्वारय सों सानी है, नाही जन माहीं ऐसे औगुन परे हैं आन, कैसे हू मुफति ऐसो पावत न प्रानी है।
__ अर्ग- जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन (चुगलखोर) है, साहसिक है जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, धर्म के स्वरूप को नहीं जानता, विनय से अपरिचित है और साथी साधुओं को लाये भोजन में से विभाग कर नहीं देता है, उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता है।