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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(द्वितीय उद्देशक)
(१--२) कवित मूल उतपन्न भये पेड़ उतपन्न होत; पेड़ के पार्छ तर-साखा उपजति है, सालातें प्रसाला पुनि पत्र उपजत आन, ताप फूल फल रस हू की उतपति है। तैसे ई विनय-मूल धरम-तरु को अहे, परम सुरस-रूप ताकी सिख गति है, विनयत कीरति विनय ही तें श्रुत-गति, विनय तें सकल बढ़ाई हू मिलति है ॥
अर्थ-वृक्ष के मूल के स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् शाखाएं आती हैं, शाखाओं में से प्रशाखाएं निकलती हैं । उसके पश्चात् पत्र, पुष्प फल और रस होता है । इसी प्रकार धर्म का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल मोक्ष है। विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, श्लाघा (प्रशंसा), श्रुत और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त होता है।
अरिल्लजो क्रोधी मति-हीन गरव में लीन है, कपटी बचन कठोर र संजम हीन है। वहे वहै अविनीत सृष्टि को सोर में, जैसे काठ वहंत स्रोत के नोर में ॥
____ अर्थ-जो चण्ड (क्रोधी), मृग (मूर्ख, अज्ञ). स्तब्ध (मानी), अप्रियवादी, मायावी और शठ है वह अविनीतात्मा संसार के स्रोत (प्रवाह) में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे कि नदी के स्रोत में पड़ा हुमा काठ बहता रहता है।
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