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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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(१२) चौपाई- जाके निकट धरम पद धारे, ताके निकट विनय संचारे ।
सिर-अंबुलि-जुत आवर करई, नित मन वचन करम अनुचरई॥
अर्थ-जिस गुरु के समीप धर्म-पदों को सीखे, उसके समीप विनय का प्रयोग करे। शिरको झुका कर, हाथों को जोड़कर काया, वाणी और मन से उसका सदा सत्कार करे।
कवित्तनिन्दा-भय-रूप लाज, अनुकम्पारूप दया, जीवनि की रक्षा सोई संजम कहा है। तथा 'ब्रह्मचरज' ये चारो कर्म-मल हारी, थान सो कल्यान-भागी जन के बताव है। जोई गुरु सदा ऐसो सासन करत मोक, 'वा गरुकों सदा मैं तो पूचं ऐसो चार्य है। सोई है विनीत सोई है है जगजीत सोई, शिष्य सदा भक्ति-भरे ऐसे भाव भाव है।
अर्थ-लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याणभागी साधु के लिए विशोधि स्थल है । जो गुरु मुझे उनकी सतत शिक्षा देते हैं, उनकी सदा पूजा करता हूँ।
(१४-१५) छंद मुक्तादाम
जया निसि-नास भए पर सूर, प्रकासत भारत को भरपूर । आचारज त्यों श्रुत-शील मती हि, लसै जिमि देवनि देव-पतीहि ।। विना घन निर्मल पाय अकास, कर ससि कौमुदि संग प्रकास । नखत्रनि तारनि के गन-माहि, लखै गनि त्यों मुनि लोकनि माहि॥
अर्थ-जैसे रात्रि के अन्त होने पर दिन में तपता हुआ सूर्य सारे भारतवर्ष को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रत, शील बुद्धि से संम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करता है । और जिस प्रकार देवों के मध्य में इन्द्र शोभा पाता है उसी प्रकार