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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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चोपाई - वरु सिर तें गिरि-भेदन होई, फोपेउ केहरि भवं न जोई ।
सकति लगे हु न अंग छिबाबे, पं गुरु-होलक मुकति न पावै ॥ अर्थ- संभव है कोई शिर से पर्वत को भी भेद डाले, संभव है, सिंह कुपित होने पर भी न खावे और यह भी संभव है कि शक्ति का अग्रभाग भी उसका भेदन
न करे परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है ।
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चौपाई - गणि रुठे अबोधि उपजाही, आसातन तें मुकली नाहीं । गुरु प्रसाद सनमुख सो रहई ॥
तातें जो अबाध सुख चहई,
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अर्थ - आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता अर्थात् गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता है । इसलिए मोक्ष सुख चाहने वाले मुनि को गुरु कृपा पाने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए ।
(११)
चौपाई- विविधमंत्र आहुति अभिषिक्ता, वंबत अगनि अर्गानि के भक्ता । आचारज सेहय विधि सोई, जो निज ज्ञान अनन्त हु होई ॥
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अर्थ - जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण नाना आहुति और मंत्र पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य को चाहिए कि अनन्त ज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे ।