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नवम विनय-समाधि अध्ययन
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(६) चौपाई- जलत अनल पर पावत सोई, आसीविसहि खिजावत सोई।
जीवन-हेतु हलाहल खावै, जो गुरु-आसातना करावं ॥
अर्थ-जो जलती अग्नि को लांघना चाहे, आशीविष सर्प को कुपित करे और जीने की इच्छा से विष को खावे (तो जैसे वह विनष्ट होगा) यही उपमा गुरुओं की आशातना की है । अर्थात् जैसे उक्त कार्य उसके विनाश के लिए हैं उसी प्रकार गुरु की आशातना भी उसकी विघातक है।
चौपाई- जलत अनल वर वाहि न जार, आसीविस रिसिकरि नहि मार।
विस हु हलाहलतें वचि जावं, पं गुरु-होलक मुकति न पावै ॥
अर्थ--आग लांघने वाले को संभव है कि वह न जलावे, संभव है कि आशीविष सर्प कुपित होने पर भी न खावे, और यह भी संभव है कि खाया हुआ हलाहल विष भी न मारे । परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है।
चौपाई - जो सिरसों गिरि फोरन चाव, जो जन सूतो सिंह जगावै ।
सकति-धार पर अंग प्रहार, जो गुरु-आसातन मन धार ।।
अर्थ-यदि कोई शिर से पर्वत का भेदन करना चाहे। अथवा सोते सिंह को ..वे या तीक्ष्ण शक्ति के अग्रभाग पर पाद-प्रहार करे, तो वह अपना ही घात करता है, इसीप्रकार गुरु की आशातना से मनुष्य अपना ही सत्यानाश करता है।