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नवम विनय-समाधि अध्ययन
(३)
चीपाई - प्रकृति-मंद होवत है कोई, अल्पवय हु भूत-मति-धर होई ॥
जे आचारवन्त गुनवाना, होलत जारत अगनि समाना ॥ अर्थ – कोई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मन्दबुद्धि होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं । आचारवान् और गुणों में सुस्थितात्मा आचार्य - भले ही फिर वे मन्दबुद्धि हों या प्राश, किन्तु अवज्ञा प्राप्त होने पर गुणराशि उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं, जैसे कि अग्नि ईंधन को ।
(४)
चौपाई छेड़त सिसु लखि सरर्पाह कोई, तासु अहित-कारक सो होई । या विधि गनिनि न गन्य जु गनई, जनम-पंथ-पंथिक सो बनई ॥
अर्थ - 'यह सर्प छोटा है' ऐसा जानकर जो कोई उसकी आशातना करता है, अर्थात् उसे लकड़ी आदि से सताता है, वह उसके अहित के लिए होता है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्दबुद्धि संसार में परिभ्रमण करता है ।
चौपाई
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आसोविस अहि अति गनि रूठं अबोधि
(५)
रिसि पाई, प्राण-हानि बढ़ि कहा कराई । उपजाहीं, आसातन तें मुकती नाहीं ॥
अर्थ - आशीविष सर्प अत्यन्त
क्रुद्ध होने पर भी 'जीवन- नाश' से अधिक क्या अहित कर सकता है ? अर्थात् और कुछ नहीं कर सकता । किन्तु आचार्यपाद अप्रसन्न होने पर अबोधि ( मिध्यात्व एवं अज्ञान) करते हैं । ( जिससे संसार बढ़ता है ।) अतः गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता है ।