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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
(६१) सबैया
जा सरधा करिके बगते निकस्यो तजि और कुटुम्ब के नाते, संगति को पद पायो भलो जिहि हेतु रहँ अमरेस उम्हाते । पूज्य अचारज-सम्मति-संजुत जे गुन है तिनमें रहि राते,
वा सरधा को कर परिपालन ते घरनी पर धन्य कहाते ।। अर्ष-जिस श्रद्धा से उत्तम प्रव्रज्यारूप स्थान की प्राप्ति के लिए साधु घर से निकला है, उसे उसी श्रद्धा से आचार्य-सम्मत गुण का पालन करना चाहिए।
(६२) चौपाई- तप संजम को जोग अराधे, नित स्वाध्याय जोग सो साथै। .
आयुध पूर सूर जिम सोई, निज-रक्षक पर-हंता होई॥
अर्थ-जो तप संयम-योग और स्वाध्याय-योग में सदा प्रवत्त रहता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार कि सेना से घिरा हुआ परन्तु आयुधों से सुसज्जित शूरवीर ।
चौपाई- सत अध्ययन ध्यान शुभ माही, जो बाता नित लीन रहाही।
पापभाव सों है जो न्यारो, जाकों तप अति लागत प्यारो॥ पूरब किये करम मल जेते, ताके सब धुपि जावत ते ते ।
जैसे रूपा फूकि तपाये, होत विशुद्ध अगनि में लाये।
अर्थ-स्वाध्याय और सद्-ध्यान में लीन, त्राता (जीव-रक्षक), निष्पाप मन वाले और तप में रत मुनि का पूर्व मंचित कर्म-मल उसीप्रकार भस्म हो जाता है, जिस प्रकार कि अग्नि द्वारा तपाये गये सोने का मल भस्म हो जाता है।