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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१६५ कुछ आचार्य इन सुकृत आदि पदों का इस प्रकार से अर्थ करते हैं—सुकृतभोजन आदि बहुत अच्छा बनाया है, सुपक्व-बहुत अच्छा पकाया है, सुच्छिन्न-घेवर आदि बहुत अच्छा छेदा है, सुहृत-पत्र-शाक आदि की तिक्तता को बहुत अच्छा हरण किया है, मृत-दाल या सत्त आदि में घी आदि बहुत अच्छा भरा है - समाया है, सुनिष्ठित-बहुत अच्छा रस निष्पन्न हुआ है, सुलष्ट-चावल आदि बहुत इष्ट है, इस प्रकार के सावध वचन मुनि नहीं बोले ।
(४२) छन्द- यह प्रयत्न सों गयो पकायो, ऐसो कहे पके के हेत,
यह प्रयत्न करि छेवन कोनो, ऐसो छेवे को कह देत । पालनीय कन्या प्रयत्न सों कहै जु दीक्षित होय उदार,
नहिं तो कहै कर्म को कारन, गाढ प्रहार हि गाढ प्रहार॥
अर्ष-यदि कदाचित् इनके विषय में बोलना पड़े तो सुपक्व को प्रयत्न-पक्व कहे, छिन्न वनादि के विषय में प्रयत्न-छिन्न कहे, कन्या के विषय में यह कन्या प्रयत्न से सावधानीपूर्वक पालन-पोषण की गई है, अथवा यदि कन्या दीक्षा ले ले -तो संयम को उत्तम रीति से पाल सकती है, कर्महेतुक शृगारादि-क्रियाओं को कर्मबन्ध का कारण कहे, तथा गाढ़ प्रहार को यह घाव बहुत गहरा है, इस प्रकार से कहे।
(४३) सबसे उत्तम यही वस्तु है, अथवा बड़े मोल को आहि, अथवा अतुलनीय है यह तो, या सम कहूँ दूसरी नांहि । नहीं बंचवे जोग महै यह, अथवा अकथनीय यह आहि,
प्रीति तथा अप्रीति कारिनी है यह ऐसो कहिये नाहि ।
अर्थ-यह वस्तु सर्वोत्कृष्ट है, यह बहुमूल्य है, यह अतुलनीय है, यह अभी बेचने योग्य नहीं है. इसका गुण अवर्णनीय है, यह अचिल्य है, इस प्रकार गृहस्थ से बात नहीं करे।
(४४) दोहा- हूँ, यह सब कहि देउंगो, तुम कहियो यह सारि ।
यों न कहै सब ठोर बुध, कहै सब सु विचार ॥
अर्ष-(यदि कोई सन्देश कहलाए तब) मैं यह सब कह दूंगा, (किसी को सन्देश देता हुआ) यह पूर्ण है-ज्यों का त्यों है-इस प्रकार न कहे । सब स्थानों में (सब प्रश्नों में) पूर्वोक्त सब वचन-विधियों का अनुचिन्तन कर प्रज्ञावान् मुनि उस प्रकार से बोले-जिस प्रकार से कि कर्मबन्ध न हो ।