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अष्टम बाचार-प्रणिधि अध्ययन
(५३) मरिल्ल
जो वह पानक अननि सोहीन हों, केवल एकाको मुनि आसीन हो। नारिन के संगकपा आदिनाहि उचर, कर साषसों परिचय गृहिसों नहि करें।
अर्ष-यदि वह रहने का स्थान विविक्त (जन-शून्य एकान्त) हो, अर्थात् वहां पर साधु अकेला हो, तो स्त्रियों के साथ कथा-वार्तादि न करे एवं वहां पर उन्हें धर्मकथादि भी न सुनावे । तथा गृहस्थों के साथ अतिपरिचय भी न करे। किन्तु साधुओं के साथ ही परिचय प्राप्त करे।
(५४) .बोहा- अरन-सिखा-सिसु को जया, नित विलांव सों मोति ।
ब्रह्मचारि कों तिपनि भय, तिय-तनु तिहि रोति ॥ वर्ष-जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदा भय रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी साधु को स्त्री के शरीर से सदा भय-भीत रहना चाहिए ।
(५५)
कवित्तनीति पचितारे भये चित्र-वाह रमनी के, नीके वीठि करिके न तिनकों निहारिये । भूसन वसन सिनगार सों सजी है तोय, ताप निज बोठि को कदापि न पसारिये। जो 4 अनयास विनु जनिई संजोग-वस, दोठि परिजाय ताकों तुरत निवारिये,। जैसे तेजवान मान-प्रतिभा परत आन. दृगनि को दीठि त्यों तुरन्त दूर टारिये ।
अर्थ-स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति को, या आभूषणों से अलंकृत स्त्री । अनुराग से टक-टकी लगाकर न देखे । यदि उन पर दृष्टि पड़ जाय तो ब्रह्मचारी साधु अपनी दृष्टि को तुरन्त पीछे उसी प्रकार खींच लेवे-जैसे कि चमकते सूर्य पर पड़ी अपनी दृष्टि को लोग तत्काल खींच लेते हैं।
(५६) कवित्तजाके हाथ पांव के छेदन भये हैं अंग, नाक औ करन नास करने में आये हैं। बरस सतेक हू को आय पहुंची है माय, घनित सरीर पोर देखि दुख पाये हैं। ऐसी हू गिलानि-गेह ताहकों निवारि दूर, ब्रह्मवतधारी जति निकट न जाये हैं। ता पै जो सुरूपवारी सुनैनी नवीना नारी, तासों बचिवे को दिन ही बताये हैं।
___ अर्ग-जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो ऐसी सौ वर्ष की आयु वाली भी बूढ़ी नारी से ब्रह्मचारी दूर रहे।