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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
१६५ (४) बसन्ततिलका
शंका-विहीन, मित दर्शित होय जोई, जानी भई प्रगट औ परिपूर्ण होई। उद्वेग-वजित अजल्पन शीलवानी, ऐसी उचारण कर मुनि आत्मज्ञानी॥
अर्थ-आत्मज्ञानी साधु प्रत्यक्ष देखी हुई, परिमित असन्दिग्ध और पूर्वापर सम्बन्ध-सहित परिपूर्ण और व्यक्त (स्पष्ट) अर्थवाली, परिचित, वाचालता-रहित तथा अन्य को उद्वेग नहीं करने वाली भाषा को बोले ।
(५०) उपेनवजा- आचार-प्राप्ति हु के धरया, जे दृष्टि गावाहु के पढ़या।
चूक तिन्हें बोलन बीच पार्व, मुनी उन्हों की न हंसी उड़ावै ॥ ___ अर्थ-आचारांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि के ज्ञाता, अथवा आचार-धर (वाक्यप्रयोग का ज्ञाता) तथा दृष्टिवाद अंग का अथवा नयवाद का अध्ययन करने वाला भी मुनि यदि कदाचित् बोलते समय प्रमाद-वश वचन बोलने में चूक जाय तो मुनि उसकी चूक जानकर उसका उपहास न करे।
(५१) कवित्त नक्षत्र-विचार विद्या शुभाशुभ स्वप्न ज्ञान, वशीकरणादि योग कबहुं न गहिये । भविष्य कथन सोई निमित्त कहावै ताते, मंत्रनि त भेषज दूर रह्यो चहिये । इनके किये ते भूत प्रानी को असाता होय, ऐसो ई विचार निज मानस में लहिये । पछे अनपूछे आप इनसों विलग रहै, ऊपर कहे ते काह गृही सो न कहिये।
अर्थ-नक्षत्र-योग, स्वप्न-फल, वशीकरणयोग, निमित्त-प्रतिपादन, मंत्र-प्रदान व भेषज-निरूपण ये सब जीवों की हिंसा के स्थान हैं। इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके फलाफल आदि न बतावे ।
(५२)
मरिल्ल
कियो और के काज लयन सो सेइये, आसन तथा सयन ह वैसे लेइये । जो उच्चार भूमि सों संजुत होय हो, नारी-पशुसों होन गहे घर सोय हो ।
अर्ष - जो अन्य के लिए बनाये गये हों, अर्थात् गृहस्थ ने अपने लिए बनाये हों, साधु के लिये न बनाये हों, ऐसे तथा जो उच्चारभूमि से सम्पन्न हो । जिसमें मल-मूत्रादि के छोड़ने के लिए समुचित स्थान हो, जहां पर स्त्री, पशु और नपुंसक मादि न रहते हों. ऐसे लयन (पर्वतों में उत्खनित लेन एवं अन्य भवन आदि) में साधु निवास करे और वहीं सोवे और उठे-बैठे।