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अष्टम भाचार-प्रणिषि अध्ययन
१॥ (४४) तोटकछन्द-इह लोक तथा परलोक-हितं, जिहितें जिय जावत है सुगतं ।
तिहि हेतु उपासिय भूरि-भूतं, तब पूछिय तत्त्व विनिश्चित तं ।
अर्ष-जिसके द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, मृत्यु के पश्चात सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति के लिए वह बहुध त-सम्पन्न साधु की पर्युपासना करे, अर्थ का निश्चय करने के लिए प्रश्न करे।
(४५) तोमरब-इन्द्रिय-जयो मुनिराय, उपयोग कों परताय ।
कर बरन तनु सिमिटाय, गुरु निकट बैठे जाय ॥
अर्ष-जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर और शरीर को संयमित कर अलीन (न अतिदूर और न अति निकट) एवं गुप्त (मन और वाणी से संयत) होकर गुरु के समीप बैठे।
तोमरछन्द- गुरु के न आगे आय, बैठे न पाछे जाय ।
पाखें न बंध अड़ाय, बैठे सु उचित सुभाय ॥ मर्च-गुरुजनों के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न बैठे । गुरु के समीप उनके उरु से अपना उरु मिलाकर (जांघ से जांघ सटा कर) अथवा अपने पैर पर पैर रखकर न बैठे। किन्तु विनयपूर्वक उचित आसन से बैठे।
(७) - विनु पूछे नहि बोले, बोल रहे हैं तिननि बोध नहि बोले।
पीठ दुरो नहिं बोले, कपट-समेत मृषा हु न बोले ॥
अर्थ-साधु को चाहिए कि गुरु के पूछे बिना स्वयं न बोले, जब गुरु किसी अन्य से बातचीत कर रहे हों तब बीच में न बोले, पृष्ठ-मांस न खावेअर्थात् किसी की पीठ पीछे निन्दा न करे तथा मायाचार और मृषावाद को छोड़े।
(४८) रवोडता-निहित अहेत बढ़ि जावत है, सुनि कोप-भाव पर जागत है।
सवाति ताहिकबहुं न मने, बहवानि जो कि हित हानि जने ॥
मर्च-जिससे अप्रीति और अप्रतीति उत्पन्न हो, तथा दूसरा शीघ्र कुपित हो जाय ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा न बोले ।