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अष्ठम आचार प्रणिधि अध्ययन
भुजंग प्रयात छन्द- नहीं क्रोध औ मानको जो निवार,
तथा लोम माया जु पावं प्रसार । पुनर्जन्म के वृक्ष को सर्वदाई,
रहे सींचते ये चार ही कसाई॥ ___ अर्थ-निग्रह नहीं किये हुए क्रोध और मान, तथा बढ़ते हये माया और लोभ ये चारों कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार-वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं।
(४१) मालिनीछन्द--
अधिक रतन-धारी आर्य आचार्य वारी, तिन विनय प्रचारी होय आज्ञानुसारी। सतत अटलधारी शीलता को संभारी, बनिय न पथचारी तासुमें ह्रासकारी ॥ कमठगति संभारी देहको गुप्ति वारी, करिय तिहि प्रकारी पापते रक्षवारी । तप संजम सुधारी यत्न कीजे अपारी, यह कृति सुखकारी मोक्ष को देन-हारी ॥
अर्ष -- रत्नाधिक अर्थात् दीक्षा में अपने से बड़े, चारित्र वृद्ध और ज्ञानवृद्ध गुरुजनों में सदा विनय का प्रयोग करे। अपने अठारह हजार शील के भेदों की कभी हानि न होने देवे । कूर्म (कछुआ) के समान आलीन-गुप्त (अपने अंगोपांगों को सुरक्षित रखने वाला) और प्रलीन-गुप्त (कारण उपस्थित होने पर सावधानी से प्रवृत्ति करने वाला) बने तथा तप और संयम में पराक्रम करे ।
(४२) पाई-- निद्रा को बहुमान न बीजे, अधिक हास को त्याग करीजे ।
वृथा कथा में राचे नाही, रहिये रत स्वाध्यायनि मांहीं ॥
अर्थ-निद्रा को बहु मान न दे वे, अधिक हास-परिहास का त्याग करे, स्त्री कथा आदि विकथाओं न रमे और स्वाध्याय में सदा संलग्न रहे।
(४३)
चौपाई- आलस-रहित सु उद्यत भावे, श्रमण-धरम में जोग लगावे ।
धमण-धरम-संजुगत जु अहई, परमारथ उत्तम सो लहई॥
अर्थ-मुनि आलस्य-रहित होकर श्रमण-धर्म में अपने मन, वचन, काय योग को लगावे । (जिस क्रिया का जो समय हो उसमें वह उसे अवश्य करे ।) श्रमण धर्म में संलग्न मुनि अनुत्तर फल को अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त होता है ।